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निशीय आदि में टट्टी-पेशाब फेंकना, अशोकवन, सप्तवन (सप्तपर्ण वृक्षों का वन ), चंपावन, चूतवन (आम्रवन) आदि में टट्टी-पेशाब फेंकना, स्वपात्र अथवा परपात्र में किया हुआ रट्टी पेशाब सूर्योदय के बाद पहले से न देखे हुए स्थान पर फेंकना। चौथा उद्देश :
चतुर्थ उद्देश में भी लघु-मास प्रायश्चित्त से सम्बन्धित क्रियाओं पर प्रकाश डाला गया है। जो साधु (अथवा साध्वी) राजा को अपने वश में करे, राजा की अर्चा-पूजा करे, राजा की प्रशंसा करे, राजा से कुछ माँगे, राजरक्षक को वशं में करे, उसकी पूजा आदि करे, नगररक्षक को वश में करे, उसकी पूजा आदि करे, निगमरक्षक को वश में करे, उसकी पूजा आदि करे, सर्वरक्षक को वश में करे, उसकी पूजा आदि करे, अखण्ड औषधि (बिना पिसे अन्न ) का आहार करे, आचार्य-उपाध्याय को बिना दिये आहार करे, बिना जाँच-पड़ताल किये आहारादि ग्रहण करे, निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी के ( साधु निम्रन्थी के एवं साध्वी निर्ग्रन्थके) उपाश्रय में बिना किसी प्रकार का संकेत किये (खांसी आदि किये बिना) प्रवेश करे, निग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी के आने-जाने के मार्ग में दण्ड, लाठी, रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि ( हंसी करने के लिए ) रखे, नया क्लेश उत्पन्न करे, क्षमा माँगने-देने के बाद पुनः क्लेश करे, मुँह फाड़-फाड़ कर हंसे, पावस्थ (शिथिलाचारी) के साथ सम्बन्ध रखे, कुशील आदि के साथ सम्बन्ध रखे, गीले हाथ, बर्तन, चमच आदि से आहारादि ग्रहण करे, सचित्त रज, सचित्त मिट्टी, नमक, गेरू, अंजन, लोद्र, कंद, मूल, फल, फूल से भरे हुए हाथ आदि से आहारादि ग्रहण करे, टट्टी-पेशाब आदि डालने की भूमि की प्रतिलेखना न करे, संकड़ी जगह में टट्टी-पेशाब डाले, अविधि से टट्टी-पेशाब डाले, मालिक की अनुमति के बिना किसी स्थान पर टट्टी-पेशाब डाले, टट्टी-पेशाब डाल कर अथवा करके काष्ठ, बाँस, अँगुली, लौह-शलाका आदि से पोंछे, टट्टी-पेशाब डाल कर अथवा करके शुद्ध नहीं होवे, टट्टी-पेशाब करके तीन अंजलि से अधिक पानी लेकर शुद्धि करे उसके लिए मासिक उद्घातिक परिहारस्थान अर्थात् लघु-मासिक (मास-लघु) प्रायश्चित्त का विधान है। पाँचवाँ उद्देश : . पंचम उद्देश भी मास-लघु प्रायश्चित्त से सम्बन्धित है। जो साधु-साध्वी सचित्त वृक्ष के मूल पर कायोत्सर्ग करे, बिछौना करे, बैठे, खड़ा रहकर इधर-उधर देखे, अशनादि चारों प्रकार (अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य) का आहार करे,
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