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व्यवहार
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साथ भीतर रहना, ५. उपाश्रय के बाहर रहने पर उनके साथ बाहर वृक्षादि के नीचे रहना । गणावच्छेदक के दो अतिशय होते हैं : गणावच्छेदक के उपाश्रय के भीतर रहने पर भीतर एवं बाहर रहने पर बाहर रहना ।
__साधु-साध्वियों को आचारांगादि शास्त्रों के ज्ञाता साधु-साध्वी के साथ में न होने पर कहीं पर रहना अकल्प्य है। शास्त्रज्ञ साधु-साध्वी के अभाव में रहने पर छेद अथवा पारिहारिक प्रायश्चित्त का भागी होना पड़ता है।
कारणविशेष अथवा प्रयोजनविशेष से अन्य गच्छ से निकल कर आने वाला साधु अथवा साध्वी अखंडित आचार से युक्त हो, शबल दोष से रहित हो, 'क्रोधादि से असंक्लिष्ट हो, अपने दोषों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करे, लगे हुए दोष का प्रायश्चित्त करे तो उसके साथ समानता का व्यवहार करना कल्प्य है, अन्यथा नहीं। सप्तम उद्देश :
सातवें उद्देश में बताया गया है कि सामान्यतया साधु स्त्री को तथा साध्वी पुरुष को दीक्षा न दे। यदि किसी ऐसे स्थान में किसी स्त्री को वैराग्य उत्पन्न हुआ हो जहाँ आसपास में कोई साध्वी न हो तो साधु उसे इस शर्त पर दीक्षा दे सकता है कि उसे दीक्षित होने के बाद यथाशीघ्र किसी साध्वी को सुपुर्द कर दे । इसी प्रकार साध्वी भी पुरुष को दीक्षा प्रदान कर सकती है।
निर्ग्रन्थियों को विकट दिशा ( जिस दिशा में चोर, बदमाश, गुंडे आदि रहते हों उस दिशा) में विचरना अकल्प्य है क्योंकि वहाँ वस्त्रादि के अपहरण तथा व्रतभंग आदि का भय रहता है। निर्ग्रन्थ विकट दिशा में विचर सकते हैं । किसी साधु का किसी ऐसे साधु आदि से वैर-विरोध हो गया हो जो विकट दिशा में रहता हो तो उसे विकट दिशा में जाकर ही उससे क्षमायाचना करनी चाहिए, अपने स्थान में रहकर नहीं। किसी निर्ग्रन्थी का किसी साधु आदि से वैर-विरोध हो गया हो और वह विकट दिशा में रहता हो तो उसे वहाँ क्षमायाचना करने के लिए जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। वह अपने स्थान पर बैठी हुई ही उससे क्षमा माँग सकती है।
साधु-साध्वियों को विकाल-अकाल-विकट काल में स्वाध्याय करना अकल्ल्य है किन्तु स्वाध्याय के काल में स्वाध्याय करना कल्प्य है। अपनी शारीरिक स्थिति .. दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र के द्वितीय उद्देश में २१ प्रकार के शबल-दोष बताये · गये हैं।
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