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________________ २६४ जैन साहित्य का वृहद् इतिहास वन्दनादि व्यवहारपूर्वक एक दूसरे का सम्मान करना चाहिए । साध्वियों के लिए भी यही नियम है। पञ्चम उद्देश : पाँचवें उद्देश में साध्वियों की विहारकालीन न्यूनतम संख्या का विधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि प्रवर्तिनी ( प्रधान आर्या) को कम से कम दो अन्य साध्वियों के साथ ही शीतोष्णकाल में ग्रामानुग्राम विचरना चाहिए । गणावच्छेदिका के साथ उपर्युक्त काल में कम से कम तीन अन्य साध्वियाँ होना अनिवार्य है। वर्षाकाल अर्थात् चातुर्मास के लिए उपयुक्त दोनों संख्याओं में एक-एक की वृद्धि की गई है। प्रवर्तिनी आदि की मृत्यु, विविध पदाधिकारिणियों की प्रतिष्ठा आदि के विषय में वे ही नियम हैं जो चतुर्थ उद्देश में साधु-समाज के लिए बताये गये हैं। वैयावृत्य के विषय में सामान्य नियम यही है कि साधु साध्वी से एवं साध्वी साधु से किसी प्रकार की वैयावृत्य-सेवा नहीं करावे । अपवादरूप से साधु-साध्वी परस्पर सेवा-सुश्रूषा कर सकते हैं। इसी प्रकार सर्पदंश आदि किसी विषम परिस्थिति की उपस्थिति में साधु-साध्वी की आवश्यकतानुसार स्त्री अथवा पुरुष कोई भी औषधोपचाररूप सेवा कर सकता है। इसके लिए किसी प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान नहीं है। प्रस्तुत विधान स्थविरकल्पिकों के लिए है। जिनकल्पिकों को किसी भी प्रकार की सेवा करवाना अकल्प्य है। सेवा करवाने पर पारिहारिक तपरूप प्रायश्चित्त करना पड़ता है । षष्ठ उद्देश: छठे उद्देश में ग्रन्थकार ने बतलाया है कि किसी भी साधु को स्थविर की अनुमति के बिना अपने ज्ञातिजनों के यहाँ नहीं जाना चाहिए । जो साधु-साध्वी अल्पश्रुत एवं अल्पागम हैं उन्हें अकेले अपने ज्ञातिजनों-सम्बन्धियों के घर नहीं जाना चाहिए अपितु बहुश्रुत एवं बह्वागम साधु-साध्वी को साथ में लेकर जाना चाहिए। वहाँ जो वस्तु उनके पहुँचने के पूर्व पक कर तैयार हो चुकी होती है वही ग्रहणीय होती है, अन्य नहीं । ____ आचार्य और उपाध्याय के पाँच अतिशय-अतिशेष (विशेषाधिकार) होते हैं : १. बाहर से उपाश्रय में आने पर उनके पाँव पोंछ कर साफ करना, २. उनके प्रस्रवण ( पेशाब ) आदि का यतनापूर्वक भूमि पर त्याग करना, ३. यथाशक्ति उनकी वैयावृत्य करना, ४. उपाश्रय के भीतर रहने पर उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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