________________
जैन साहित्य का वृहद् इतिहास ठीक न होने पर (व्रण आदि की अवस्था में ) स्वाध्याय करना वर्जित है। हाँ, ऐसी स्थिति में परस्पर वाचना का आदान-प्रदान हो सकता है ।
तीन वर्ष की श्रमण-पर्याय वाले निर्ग्रन्थ को तीस वर्ष की श्रमण-पर्याय वाली निर्ग्रन्थी के लिए उपाध्याय-पद पर प्रतिष्ठित करना कल्प्य है। इसी प्रकार पाँच वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाले साधु को साठ वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाली साध्वी के लिए आचार्य अथवा उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित करना कल्प्य है। तात्पर्य यह है कि साधु-साध्वियों को बिना आचार्य-उपाध्याय के नियन्त्रण के स्वच्छन्दतापूर्वक घूमते नहीं रहना चाहिए। ___जिस प्रदेश में साधु रहते हों वहाँ की राज्य व्यवस्था बदल जाए एवं सारी सत्ता अन्य राजा के हाथ में आ जाए तो उस प्रदेश में रहने के लिए पुनः नये राज्याधिकारियों की अनुमति लेना आवश्यक है। यदि दूसरे राजा का पूर्ण अधिकार न हुआ हो तथा पहले की सत्ता उखड़ न गई हो तो पुनः अनुमति लेने की कोई आवश्यकता नहीं। अष्टम उद्देश :
आठवें उद्देश में सूत्रकार ने बताया है कि साधु एक हाथ से उठाने योग्य छोटे-मोटे शय्या-संस्तारक तीन दिन जितनी दूरी से भी ला सकते हैं। किसी वृद्ध निर्ग्रन्थ के लिए आवश्यकता होने पर पाँच दिन जितनी दूरी से भी लाने का विधान है।
स्थविर के लिए निम्नोक्त उपकरण कल्प्य हैं : १. दंड, २. भांड, ३. छत्र, ४. मात्रिका (पेशाब के लिए), ५. लाष्टिक (पीठ पीछे रखने का तकिया या पाटा), ६. भिसि (स्वाध्यायादि के लिए बैठने का पाटा ), ७. चेल (वस्त्र ), ८. चेल-चिलिमिलिका ( वस्त्र का पर्दा ), ९. चर्म, १०. चर्मकोश (चमड़े की थैली), ११. चर्म-पलिछ (लपेटने के लिए चमड़े का टुकड़ा)। इनमें से जो उपकरण साथ में रखने अथवा लाने-लेजाने के योग्य न हों उन्हें उपाश्रय के समीप किसी गृहस्थ के यहाँ रख कर उसकी अनुमति से समयसमय पर उनका यथोचित उपयोग किया जा सकता है।
कहीं पर अनेक साधु रहते हो और उनमें से कोई गृहस्थ के घर अपना उपकरण भूल आया हो तथा दूसरा कोई साधु गृहस्थ के वहाँ गया हो एवं गृहस्थ उसे वह उपकरण सौंपते हुए कहे कि यह आपके साधु का है अतः इसे ले जाइए। तब वह साधु उपकरण लेकर अपने स्थान पर आकर सब साधुओं को दिखावे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org