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व्यवहार
२६१ बड़ा होता है कि चिना वैसा किए उसका पूरा प्रायश्चित्त नहीं हो पाता और न दूसरे साधुओं के मन में उस प्रकार के अपराध के प्रति भय ही उत्पन्न होता है। इसी प्रकार पारांचिक तप ( दशम प्रायश्चित्त) वाले साधु को भी गृहस्थ का वेष पहिनाने के बाद ही पुनः संयम में स्थापित करना चाहिए। प्रायश्चित्तदाता को यह भी अधिकार है कि वह गृहस्थ का वेष न पहिना कर अन्य प्रकार का वेष भी पहिना सकता है।
__ अनेक पारिहारिक (प्रायश्रित्तवाले) और अपारिहारिक साधु एक साथ भोजन करना चाहें, यह ठीक नहीं है। पारिहारिक साधुओं के साथ तप पूर्ण हुए बिना अपारिहारिक साधुओं को भोजन नहीं करना चाहिए क्योंकि जो तपस्वी हैं उनका तप पूरा होने के बाद एक महीने के तप पर पाँच दिन यावत् छः महीने के तप पर एक महीना व्यतीत हो जाने के पूर्व उनके साथ कोई भोजन नहीं कर सकता। इन दिनों में उन्हें विशेष प्रकार के आहार की आवश्यकता रहती है जो दूसरों के लिए नरूरी नहीं होता। तृतीय उद्देश : . तीसरे उद्देश में बताया गया है कि किसी साधु के मन में अपना अलग गण-गच्छ बना कर विचरने की इच्छा हो किन्तु वह आचाराङ्गादि सूत्रों का जानकार न हो तो उसे शिष्यादि परिवारसहित होने पर भी अलग गण बनाकर स्वेच्छाचारी होना शोभा नहीं देता। यदि वह आचाराङ्गादि सूत्रों का ज्ञाता है तो अपना अलग गण बनाकर घूम सकता है किन्तु वैसा करने के लिए स्थविर की अनुमति लेना अनिवार्य है। स्थविर की इच्छा के विरुद्ध अलग गण बनाकर विचरने वाले को उतने ही दिन के छेद अथवा पारिहारिक प्रायश्चित्त का भागी होना पड़ता है। उसके साथ के साधर्मिक साधुओं के लिए किसी प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान नहीं है।
उपाध्याय-पद की योग्यताओं का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि जो तीन वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाला है, निम्रन्थ के आचार में कुशल है, संयम में प्रवीण है, आचाराङ्गादि प्रवचन-शास्त्रों में निष्णात है, प्रायश्चित्त देने में समर्थ है, गच्छ के लिए क्षेत्रादि का निर्णय करने में कुशल है, निर्दोष आहारादि ढूंढने में प्रवीण है, संक्लिष्ट परिणामों से अस्पृष्ट है, चारित्रवान् है, बहुश्रुत है उसे उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित करना कल्प्य है। जो पाँच वर्ष की निर्ग्रन्थपर्याय वाला है, श्रमण के आचार में कुशल है, प्रवचन में प्रवीण है यावत् कम से
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