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__ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए। इन सब का अभाव होने पर गाँव के बाहर जाकर पूर्व अथवा उत्तर दिशा के सन्मुख खड़े होकर दोनों हाथ जोड़कर अपने अपराध की आलोचना करते हुए प्रायश्चित्त अङ्गीकार करना चाहिए । द्वितीय उद्देश :
व्यवहार के दूसरे उद्देश में ग्रन्थकार ने बताया है कि एक-सी सामाचारी (आचार के नियम) वाले दो साधर्मिक साथ में हों और उनमें से किसी एक ने दोष-स्थान का सेवन किया हो तो दूसरे के सन्मुख प्रायश्चित्त अङ्गीकार करना चाहिए। प्रायश्चित्त करने वाले की वैयावृत्य आदि का भार दूसरे साधु पर ही रहता है। दो साथ के साधर्मिकों में से दोनों ने दोषस्थान का सेवन किया हो तो क्रमशः एक के बाद दूसरे के सामने आलोचना कर प्रायश्चित्त करना चाहिए एवं परस्पर वैयावृत्य करनी चाहिए। अनेक साधर्मिक साधुओं में से किसी एक साधु ने अपराध किया हो तो गीतार्थ ( शास्त्रज्ञ ) साधु का कर्तव्य है कि वह उसे प्रायश्चित्त दे। कदाचित् सब साधुओं ने अपराध-स्थान का सेवन किया हो तो पहले उनमें से एक को छोड़कर शेष प्रायश्चित्त स्वीकार करें एवं उनका प्रायश्चित्त पूरा होने पर वह भी प्रायश्चित्त कर ले ।
परिहारकल्पस्थित साधु कदाचित् रुग्ण हो जाए तो उसे गच्छ से बाहर निकालना अकल्प्य है । जहाँ तक वह स्वस्थ न हो जाए, उसकी वैयावृत्य करवाना गणावच्छेदक का कर्तव्य है । स्वस्थ होने के बाद उसे थोड़ा-सा प्रायश्चित्त दे देना चाहिए क्योंकि उसने सदोषावस्था में अपनी सेवा करवाई है। इसी प्रकार अनवस्थाप्य एवं पारांचिक प्रायश्चित्त करने वाले को भी रुग्णावस्था में गच्छ से बाहर नहीं निकालना चाहिए।
क्षिप्तचित्त (जिसका चित्त अपमानादि के कारण विक्षिप्त हो गया है ) साधु को गच्छ से बाहर निकालना गणावच्छेदक को अकल्प्य है। जहाँ तक उसका चित्त स्थिर न हो जाए, उसकी यथोचित सेवा करनी चाहिए । स्वस्थ होने के बाद उसे नाममात्र का प्रायश्चित्त देना चाहिए। इसी प्रकार दीतचित्त ( जिसका चित्त अभिमानादि के कारण उद्दीप्त हो गया है), उन्मादप्राप्त, उपसर्गप्राप्त, साधिकरण ( क्रोधादि के आवेश से युक्त), सप्रायश्चित्त (प्रायश्चित्त से अति व्याकुल ) आदि को गच्छ से बाहर निकालना अकल्प्य है ।
अनवस्थाप्य तप (नवम प्रायश्चित्त) करने वाले साधु को गृहस्थलिंग धारण कराये बिना संयम में स्थापित करना निषिद्ध है क्योंकि उसका अपराध इतना
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