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________________ व्यवहार २५९ करना चाहिए । प्रायश्चित्त समाप्त होते ही कोई दोष लग जाए तो फिर से प्रायश्चित्त प्रारम्भ करना चाहिए । प्रायश्चित्त का सेवन करने वाले साधु को स्थविर आदि से पूछ कर ही अन्य साधुओं के साथ उठना-बैठना चाहिए । उनकी आज्ञा का उल्लंघन कर किसी के साथ उठने-बैठने वाले को जितने दिन तक आज्ञा का उल्लंघन किया हो उतने ही दिन का छेद-प्रायश्चित्त आता है अर्थात् उतने दिन उसकी दीक्षा की समयगणना में कम हो जाते हैं। परिहारकल्प में स्थित अर्थात् पारिहारिक प्रायश्चित्त का सेवन करने वाला साधु अपने आचार्य की आज्ञा से बीच ही में परिहारकल्प का त्याग कर स्थविर' आदि की वैयावृत्य के लिए अन्यत्र जा सकता है। सामर्थ्य रहते हुए परिहारकल्प का सेवन करते हुए जाना चाहिए। सामर्थ्य न होने पर उसका त्याग कर देना चाहिए । एकलविहारी साधु के विषय में सूत्रकार कहते हैं कि कोई साधु गण का त्याग कर अकेला ही विचरे एवं अकेला विचरता हुआ अपने को शुद्ध आचार का पालन करने में असमर्थ पाकर पुनः उसी गण में सम्मिलित होना चाहे तो उसे आलोचना आदि करवाकर प्रथम दीक्षा को छेदकर-भंगकर दूसरी दीक्षा अंगीकार करवानी चाहिए। जो नियम सामान्य एकलविहारी साधु के लिए है वही एकलविहारी गणावच्छेदक, आचार्य आदि के लिए भी है । शिथिलाचारियों के लिए भी इसी प्रकार का विधान है। आलोचना किसके सम्मुख करनी चाहिए ? इसका उत्तर देते हुए सूत्रकार कहते हैं कि आचार्य-उपाध्याय आदि की उपस्थिति में उन्हीं के समक्ष आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित्त आदि करके विशुद्ध होना चाहिए। आचार्यादि की अनुपस्थिति में सम्भोगी ( सहभोजी ), साधर्मिक ( समानधर्मी), बहुश्रुत आदि के सन्मुख आलोचना आदि करना कल्प्य है। कदाचित् सम्भोगी आदि भी पास में न हों तो जहाँ अन्य गण के सम्भोगी, बहुश्रुत आदि हों वहाँ जाकर आलोचना कर प्रायश्चित्त अङ्गीकार करना चाहिए। कदाचित् इस प्रकार के साधु भी देखने में न आवे तो जहाँ सारूपिक ( सारूविय-सदोषी) बहुश्रुत साधु हों वहाँ जाकर प्रायश्चित्त करना चाहिए। सारूपिक बहुश्रुत साधु के अभाव में बहुश्रुत श्रमणोपासक (श्रावक) एवं उसके अभाव में समभावी सम्यग्दृष्टि गृहस्थ के पास जाकर १. जवन्य तीन वर्ष, मध्यम पाँच वर्ष एवं उत्कृष्ट बीस वर्ष का दीक्षित साधु . स्थविर कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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