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________________ २५० जैन साहित्य का बृहद् इतिहास योग्यता, साधु-साध्वी की पारस्परिक वैयावृत्य आदि पर विशेष प्रकाश डाला गया है। षष्ठ उद्देश में निम्न बातों का विचार किया गया है : साधुओं को सम्बन्धियों के घर कैसे जाना चाहिए, आचार्य-उपाध्याय आदि के क्या अतिशय हैं, शिक्षित एवं अशिक्षित साधुओं में क्या विशेषता है, खुले एवं ढके स्थानक में रहने की क्या विधि है, मैथुनेच्छा के लिए क्या प्रायश्चित्त है, अन्य गच्छ से आने वाले साधु-साध्वियों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए आदि । सप्तम उद्देश में निम्नोक्त विषयों का समावेश किया गया है : संभोगी (परस्पर आहार-विहार का सम्बन्ध रखने वाले ) साधु-साध्वियों का परस्पर व्यवहार, साधु साध्वी की दीक्षा, साधु-साध्वी के आचार की भिन्नता, साधु-साध्वी को पदवी प्रदान करने का उचित काल, राज्यव्यवस्था में परिवर्तन होने की दशा में साधुओं का कर्तव्य इत्यादि । अष्टम उद्देश में शय्या-संस्तारक आदि विविध उपकरण ग्रहण करने की विधि पर प्रकाश डाला गया है। नवम उद्देश में शय्यातर-सागारिक (मकान-मालिक) के अतिथि आदि के आहार से सम्बन्धित विधि-निषेध का विचार करते हुए भिक्षु-प्रतिमाओं का वर्णन किया गया है । दशम उद्देश में यवमध्य-प्रतिमा, वज्रमध्य-प्रतिमा, पाँच प्रकार के व्यवहार एवं बालदीक्षा की विधि पर विशेष प्रकाश डाला गया है। प्रथम उद्देश : पहले उद्देश के प्रारम्भ में सूत्रकार ने बताया है कि मासिक प्रायश्चित्त के योग्य दोष का सेवन कर उसकी आचार्यादि के समक्ष कपटरहित आलोचना करने वाले साधु को एकमासिक प्रायश्चित्त ही करना पड़ता है, जबकि कपटयुक्त आलोचक उससे दुगुने अर्थात् द्विमासिक प्रायश्चित्त का भागी होता है । द्विमासिक प्रायश्चित्त के योग्य निष्कपट आलोचक को द्विमासिक एवं सकपट आलोचक को त्रिमासिक प्रायश्चित्त का भागी होना पड़ता है। इस प्रकार त्रि, चतुर , पंच एवं अधिक से अधिक षण्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है। पंचमासिक प्रायश्चित्त के योग्य निष्कपट आलोचक को पंचमासिक एवं सकपट आलोचक को षण्मासिक प्रायश्चित्त लगता है। इसके उपरान्त सकपट अथवा निष्कपट किसी भी प्रकार के आलोचक के लिए षण्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है। अनेक दोषों का सेवन करने वाले के लिए बताया गया है कि अनेक दोषों में से जिसका पहले सेवन किया हो उसकी पहले आलोचना करे एवं जिसका पीछे सेवन किया हो उसकी पीछे आलोचना करे । इस प्रकार आलोचना करता हुआ सब दोषों का एक साथ प्रायश्चित्त ले । प्रायश्चित्त करते हुए पुनः दोष लगे तो पुनः उसका प्रायश्चित्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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