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तृतीय प्रकरण
व्यवहार
बृहत्कल्प और व्यवहार एक दूसरे के पूरक हैं । बृहत्कल्प की तरह व्यवहार' भी गद्य में ही है। इसमें दस उद्देश हैं जिनमें लगभग ३०० सूत्र हैं। प्रथम उद्देश में निष्कपट और सकपट आलोचक, एकल विहारी साधु आदि से सम्बन्धित प्रायश्चित्तों पर प्रकाश डाला गया है । द्वितीय उद्देश में समान सामाचारी वाले दोषी साधुओं से सम्बन्धित प्रायश्चित्त, सदोष रोगी आदि की वैयावृत्य - सेवा, अवस्थित आदि की पुनः संयम में स्थापना, गच्छ त्याग कर पुनः गच्छ में सम्मिलित होने वाले की परीक्षा एवं प्रायश्चित्तदान, साधुओं का पारस्परिक व्यवहार आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है । तृतीय उद्देश में निम्न बातों का विचार किया गया है : गच्छाधिपति होने वाले साधु की योग्यता, पदवीधारियों का आचार, तरुण साधु का आचार, गच्छ में रह कर अथवा गच्छ छोड़ कर अनाचार का सेवन करने वाले के लिए प्रायश्चित्त, मृषावादी को पदवी देने का निषेध । चतुर्थ उद्देश में निम्न विषयों का समावेश है : आचार्य आदि पदवीधारियों का परिवार, आचार्य आदि के साथ विहार में रहने वाला परिवार, आचार्य आदि की मृत्यु और साधुओं का कर्तव्य, युवाचार्य की स्थापना, ज्ञानादि के निमित्त अन्य गच्छ में जाना आदि । पंचम उद्देश में साध्वी के आचार, साधु-साध्वी के पारस्परिक व्यवहार, आचार्यादि की प्रायश्चित्त प्रदान करने की
१. ( अ ) W. Schubring, Leipzig, 1918; जैन साहित्य संशोधक समिति, पूना, सन् १९२३.
(आ) अमोलक ऋषिकृत हिन्दी अनुवादसहित --- सुखदेवसहाय ज्वालाप्रसाद जौहरी, हैदराबाद, वी० सं० २४४५.
(इ) गुजराती अनुवादसहित - जीवराज घेलाभाई दोशी, अहमदाबाद,
सन् १९२५.
(ई) नियुक्ति, भाष्य तथा मलयगिरिविरचित विवरणयुक्त - केशवलाल प्रेमचन्द, अहमदाबाद, वि० सं० १९८२-८५.
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