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जैन साहित्य का वृहद् इतिहास
कम दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प ( बृहत्कल्प ) और व्यवहार का ज्ञाता है उसे आचार्य एवं उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित करना कल्प्य है । आठ वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला श्रमण यदि आचारकुशल, प्रवचनप्रवीण एवं असंक्लिष्टमना है तथा कम-सेकम स्थानाङ्ग व समवायांग का ज्ञाता है तो उसे आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तिनी ( साध्वियों में प्रधान ), स्थविर, गणी ( सूत्रार्थदाता ) एवं गणावच्छेदक ( साधुओं का नियन्त्रणकर्ता ) की पदवी प्रदान की जा सकती है । इन नियमों का अपवाद भी है । निरुद्ध पर्याय वाले अर्थात् कारणवशात् संयम से भ्रष्ट हो पुनः संयमी बनने वाले एक ही दिन की दीक्षापर्याय वाले साधु को भी आचार्यउपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है। इस प्रकार का साधु प्रतीतिकारी, धैर्यशील, विश्वसनीय, समभावी, प्रमोदकारी, अनुमत एवं बहुमत कुल का होना आवश्यक है | साथ ही उसमें भी प्रतीति, धैर्य, समभाव आदि स्वकुलोपलब्ध गुणों का होना जरूरी है । आचारांगादि सूत्रों का ज्ञान तो आवश्यक है। ही । इस प्रकार का पुरुष जातिसम्पन्न, कुलसम्पन्न एवं गुणसम्पन्न होने के कारण अपने दायित्व का सम्यक प्रकार से निर्वाह कर सकता है ।
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तरुण साधुओं को आचार्य - - उपाध्याय का देहावसान हो जाने पर उन पदों पर किसी की प्रतिष्ठा किये बिना रहना अकल्प्य है । उन्हें आचार्य एवं उपाध्याय की योग्यता वाले साधुओं को तत्तद् पद पर प्रतिष्ठित कर उनकी आज्ञा के अनुसार ही संयम का पालन करना चाहिए । इसी प्रकार नवदीक्षित तरुण साध्वियों को भी प्रवर्तिनी आदि के अभाव में रहना अकल्प्य है ।
पदवी के अयोग्य अर्थात् गच्छ में उपाध्याय, प्रवर्तक, गच्छ का त्याग कर
मैथुन का सेवन करने वाले साधुओं को आचार्यादि की बताते हुए सूत्रकार कहते हैं कि जो गच्छ से अलग हुए बिना रहते हुए ही मैथुन का सेवन करे वह यावज्जीवन आचार्य, स्थविर, गणी एवं गणावच्छेदक की पदवी के अयोग्य है । मैथुन सेवन करने वाले को पुनः दीक्षा धारण कर गच्छ में सम्मिलित होने के बाद तीन वर्ष तक आचार्यादि की पदवी प्रदान करने का निषेध है। तीन वर्ष बीतने पर यदि उसका मन स्थिर हो, विकार शान्त हों, कषायादि का अभाव हो तो उसे आचार्यादि के पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है ।
चतुर्थ उद्देश :
चौथे उद्देश में सूत्रकार ने बताया है कि हेमन्त और ग्रीष्मऋतु में आचार्य एवं उपाध्याय के साथ कम से कम एक अन्य साधु होना ही चाहिए । गणाव
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