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जैन साहित्य का वृहद् इतिहास एवं काम पूरा करके वापिस लौट आना चाहिए। ऐसा करने में यदि चारित्र में किसी प्रकार का दोष लगे तो उसका यथोचित प्रायश्चित्त करना चाहिए।
पुलाकभक्तप्रकृत सूत्र में सूत्रकार ने इस बात पर नोर दिया है कि साध्वियों को एक स्थान से पुलाकभक्त अर्थात् सरस आहार ( भारी भोजन ) प्राप्त हो जाए तो उस दिन उसी आहार से संतोष करते हुए दूसरी जगह और आहार लेने नहीं जाना चाहिए। यदि उस आहार से पूरा पेट न भरे तो दूसरी बार भिक्षा के लिए जाने में कोई हर्ज नहीं है। षष्ठ उद्देश :
षष्ठ उद्देश में बीस सूत्र हैं। इसमें बताया गया है कि निम्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को निम्नलिखित छः प्रकार के वचन नहीं बोलने चाहिए : अलीकवचन, हीलितवचन, खिंसितवचन, परुषवचन, गार्हस्थिकवचन और व्यवशमितोदीरणवचन ।'
__ कल्प ( साध्वाचार) के विशुद्धिमूलक छः प्रस्तार (प्रायश्चित्त की रचनाविशेष ) हैं : प्राणातिपात का आरोप लगानेवाले से सम्बन्धित प्रायश्चित्त, मृषावाद का आरोप लगानेवाले से संबन्धित प्रायश्चित्त, अदत्तादान का आरोप लगाने वाले से सम्बन्धित प्रायश्चित्त, अविरतिका (स्त्री) अथवा अब्रह्म ( मैथुन) का आरोप लगाने वाले से सम्बन्धित प्रायश्चित्त, अपुरुष-नपुंसक का आरोप लगाने वाले से सम्बन्धित प्रायश्चित्त और दास का आरोप लगाने वाले से सम्बन्धित प्रायश्चित्त ।
निग्रन्थ के पैर में काँटा आदि लग जाए और निर्ग्रन्थ उसे निकालने में असमर्थ हो तो निर्ग्रन्थी उसे निकाल सकती है। इसी प्रकार निर्ग्रन्थ के आँख में मच्छर आदि गिर जाने पर निर्ग्रन्थी उसे अपने हाथ से निकाल सकती है। यही बात निर्ग्रन्थियों के पैर के कटे एवं आँख के मच्छर आदि के विषय में समझनी चाहिए।
साधु के डूबने, गिरने, फिसलने आदि का मौका आने पर साध्वी एवं साध्वी के डूबने आदि के अवसर पर साधु हाथ आदि पकड़ कर एक-दूसरे को डूबने से बचा सकते हैं।
क्षिप्तचित्त निर्ग्रन्थी को निर्ग्रन्थ अपने हाथ से पकड़ कर उसके स्थान आदि पर पहुँचा दे तो उसे कोई दोष नहीं लगता। इसी प्रकार दीप्तचित्त साध्वी को भी साधु अपने हाथ से पकड़ कर उपाश्रय आदि तक पहुँचा सकता है।" १. उ० ६, सू. १. २. उ० ६, सू० २. ३. उ० ६, सू. ३-६. ४. उ०
६, सू० ७-९. ५. उ० ६, सू० १०-८.
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