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बृहत्कल्प
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आहारविषयक सूत्र में बताया है कि आहारादि ग्रहण करते समय साधु-साध्वी के पात्र में द्वीन्द्रियादिक जीव, बीज, रज आदि आ पड़े तो उसे यतनापूर्वक निकाल कर आहार को शुद्ध करके खाना चाहिए। यदि रज आदि आहार से न निकल सके तो वह आहार लेनेवाला न स्वयं खाए, न अन्य साधु-साध्वी को खिलाए अपितु उसे एकान्त निर्दोष स्थान में परिष्ठापित कर दे। आहारादि लेते समय सचित्त पानी की बूंदें आहार में गिर जाएँ और वह आहार गर्म हो तो उसे खाने में कोई दोष नहीं है क्योंकि उसमें पड़ी बूंदें अचित्त हो जाती हैं। यदि वह आहार ठंडा है तो उसे न स्वयं खाना चाहिए, न दूसरों को दिलाना चाहिए अपितु एकान्त स्थान में यतनापूर्वक रख देना चाहिए ।
ब्रह्मरक्षाविषयक सूत्रों में बताया गया है कि पेशाब आदि करते समय साधुसाध्वी की किसी इन्द्रिय का पशु-पक्षी स्पर्श करे और वह उसे सुखदायी माने तो उसे चातुर्मासिक गुरु प्रायश्चित्त लगता है। निम्रन्थी के एकाकी वास आदि का निषेध करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि निग्रन्थी को अकेली रहना अकल्प्य है । इसी प्रकार साध्वी को नग्न रहना, पात्ररहित रहना, व्युत्सृष्टकाय होकर (शरीर को ढीला-ढाला रखकर ) रहना, प्रामादि के बाहर आतापना लेना, उत्कटुकासन पर बैठकर कायोत्सर्ग करना, वीरासन पर बैठ कर कायोत्सर्ग करना, दंडासन पर बैठकर कायोत्सर्ग करना, लगंडशायी होकर कायोत्सर्ग करना, आकुंचनपट्ट (पर्यस्तिकापट्ट) रखना, सावश्रय' आसन पर बैठना-सोना, सविषाण पीठ-फलक पर बैठना-सोना, नालयुक्त अलाबुपात्र रखना, सवृन्त पादकेसरिका रखना, दारुदण्डक (पादपोंछनक ) रखना आदि भी कलप्य नहीं है। __ मोकविषयक सूत्र में बताया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को परस्पर मोक (पेशाब अथवा थूक ) का आचमन करना-पान करना अकल्प्य है । रोगादिक कारणों से वैसा करने की छूट है।
परिवासितप्रकृत प्रथम सूत्र में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को परिवासित अर्थात् रात्रि में रखा हुआ आहार खाने की मनाही की गई है। शेष सूत्रों में परिवासित आलेपन, परिवासित तैल आदि का उपयोग करने का निषेध किया गया है।
परिहारकल्पविषयक सूत्र में बताया गया है कि परिहारकल्प में स्थित भिक्षु को यदि स्थविर आदि के आदेश से अन्यत्र जाना पड़े तो तुरन्त जाना चाहिए १. पीठवाला-सावश्रयं नाम यस्य पृष्टतोऽवष्टम्भो भवति । २. “पादकेसरिया णाम डहरयं चीरं । असईए चीराणां दारुए बज्झति"
इति चूर्णौ ।
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