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साध्वाचार के छः परिमंथ - व्याघातक कहे गये हैं : कौकुचित ( कुचेष्टा ), मौखरिक ( बहुभाषी ), चक्षुर्लोल, तिन्तिणिक ( खेदयुक्त ), इच्छालोभ और भिजानिदान करण ( लोभवशात् निदानकरण ) ।'
बृहत्कल्प
छः प्रकार की कल्पस्थिति कही गयी है : सामायिक संयत कल्पस्थिति, छेदोपस्थापनीय संयत कल्पस्थिति, निर्विशमानकल्पस्थिति, निर्विष्टकायिककल्पस्थिति, जिनकल्पस्थिति और स्थविरकल्पस्थिति, । कल्पशास्त्रोक्त साध्वाचार की मर्यादा का नाम कल्पस्थिति है ।
बृहत्कल्प सूत्र के इस परिचय से स्पष्ट है कि इस लघुकाय ग्रंथ का जैन आचारशास्त्र की दृष्टि से विशेष महत्व है । साधु-साध्वियों के जीवन एवं व्यवहार से सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का सुनिश्चित विधान इसकी विशेषता है । इसी विशेषता के कारण यह कल्पशास्त्र ( आचारशास्त्र ) कहा जाता है ।
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१.
उ० ६, सू० १९ ( इनका विशेष अर्थ वृत्ति आदि में देखना चाहिए ).
२. उ० ६, सू० २०.
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