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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
वस्त्रविषयक सूत्रों में यह बताया गया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को कृत्स्न वस्त्र का संग्रह एवं उपयोग करना अकल्प्य है । उन्हें अकृत्स्न वस्त्र का संग्रह एवं उपयोग करना चाहिए । इसी प्रकार साधु-साध्वियों को अभिन्न अर्थात् अच्छिन्न ( बिना फाड़ा ) वस्त्र काम में नहीं लेना चाहिए । निर्मेथियों को अवग्रहानन्तक ( गुह्यदेशपिधानक — कच्छा ) व अवग्रहपट्ट्क ( गुह्यदेशाच्छादक – पट्टा ) का उपयोग करना चाहिए ।
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त्रिकृत्स्नविषयक सूत्र में बताया गया है कि प्रथम बार दीक्षा लेने वाले साधु को रजोहरण, गोच्छक, प्रतिग्रह ( पात्र ) एवं तीन पूरे वस्त्र ( जिनके आवश्यक उपकरण बन सकते हों ) लेकर प्रत्रजित होना चाहिए । पूर्व-प्रत्रजित साधु को पुनः दीक्षा ग्रहण करते समय नई उपधि न लेते हुए अपनी पुरानी उपधि के साथ ही दीक्षित होना चाहिए। चतुः कृत्स्नविषयक सूत्र में पहले-पहल दीक्षा लेने वाली साध्वी के लिए चार पूरे वस्त्रों का विधान किया गया है । शेष उपकरण साधु के समान ही समझने चाहिए ।
समवसरणसम्बन्धी सूत्र में ग्रन्थकार ने बताया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को प्रथम समवसरण अर्थात् वर्षाकाल में वस्त्र ग्रहण करना अकल्प्य है । द्वितीय समवसरण अर्थात् ऋतुबद्धकाल - हेमन्त - ग्रीष्मऋतु में वस्त्र लेने में कोई दोष नहीं ।
यथारात्निकवस्त्र परिभाजनप्रकृत सूत्र में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को यथारत्नाधिक अर्थात् छोटे-बड़े की मर्यादा के अनुसार वस्त्र-विभाजन करने का आदेश दिया गया है । इसी प्रकार सूत्रकार ने यथारत्नाधिक शय्या संस्तारक- परिभाजन का भी विधान किया है एवं बताया है कि कृतिकर्म-वन्दनादि कर्म के विषय में भी यही नियम लागू होता है ।
अन्तरगृहस्थानादिप्रकृत सूत्र में आचार्य ने बताया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को घर के भीतर अथवा दो घरों के बीच में बैठना, सोना आदि अकल्य है । कोई रोगी, वृद्ध, तपस्वी आदि मूच्छित हो जाए अथवा गिर पड़े तो बैठने आदि में कोई दोष नहीं है । निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को अन्तरगृह में चार-पाँच
१. रंग आदि से जिसका आकार आकर्षक एवं सुन्दर बनाया गया है वह कृत्स्न वस्त्र है । भभिन्न वस्त्र बिना फाड़े हुए पूरे वस्त्र को कहते हैं, चाहे वह सादा हो अथवा रंगीन । श्रमण श्रमणियों के लिए इन दोनों प्रकार के वस्त्रों का निषेध किया गया है ।
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