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बृहत्कल्प
२४७.
गाथाओं का आख्यान नहीं करना चाहिए। एक गाथा आदि का आख्यान खड़े-खड़े किया जा सकता है । ___ शय्या-संस्तारकसम्बन्धी सूत्रों में बताया गया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को प्रातिहारिक ( वापिस देने योग्य ) उपकरण मालिक को सौंपे बिना अन्यत्र विहार नहीं करना चाहिए । शय्यातर अर्थात् मकान-मालिक के शय्या-संस्तारक को अपने लिए जमाये हुए रूप में न छोड़ते हुए बिखेर कर व्यवस्थित करने के बाद ही अन्यत्र विहार करना चाहिए । अपने पास के शय्यातर के शय्या संस्तारक को यदि कोई चुरा ले जाए तो उसकी खोज करनी चाहिए एवं वापिस मिलने पर शय्यातर को सौंप देना चाहिए। पुनः आवश्यकता होने पर याचना करके उसका उपयोग करना चाहिए।
अवग्रहविषयक सूत्रों में सूत्रकार ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि जिस दिन कोई श्रमण वसति एवं संस्तारक का त्याग करें उसी दिन दूसरे श्रमण वहाँ आ जावे तो भी एक दिन तक पहले के श्रमणों का अवग्रह ( अधिकार ) कायम रहता है।
सेनाप्रकृत सूत्र में बताया है कि ग्राम, नगर आदि के बाहर सेना का पड़ाव पड़ा हो तो निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को उसी दिन भिक्षाचर्या करके अपने स्थान पर लौट आना चाहिए। वैसा न करने पर प्रायश्चित्त का भागी होना पड़ता है। ___ अवग्रप्रमाणप्रकृत सूत्र में ग्रन्थकार ने बताया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को चारों ओर से सवा वर्ग योजन का अवग्रह रख कर ग्राम, नगर आदि में रहना कल्प्य है। चतुर्थ उद्देश :
चतुर्थ उद्देश में सैंतीस सूत्र हैं। प्रारम्भिक सूत्रों में आचार्य ने बताया है कि हस्तकर्म, मैथुन' एवं रात्रिभोजन अनुदातिक अर्थात् गुरुप्रायश्चित्त के योग्य हैं । दुष्ट, प्रमत्त एवं अन्योन्यकारक के लिए पाराञ्चिक प्रायश्चित्त का विधान है। साधर्मिकस्तैन्य, अन्यधार्मिकस्तैन्य एवं हस्ताताल ( हस्ताताडन-मुष्टि आदि द्वारा प्रहार ) अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य हैं।
१. विनय-पिटक के पाराजिक प्रकरण में मैथुनसेवन के लिए पाराजिक
प्रायश्चित्त का विधान है। पाराजिक का अर्थ है भिक्षु को भिक्षुपन से हमेशा के लिए हटा देना।
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