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वृहत्करप
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परिवार का कोई व्यक्ति साधु-साध्वी को दे तो वह भग्रहणीय है। इसी तरह इस प्रकार का अशनादिक सागारिक का पूज्य स्वयं दे तब भी वह अकल्प्य है। अप्रातिहारिक अर्थात् वापिस न लौटने योग्य अशनादि सागारिक अथवा उसका परिजन दे तो अकल्प्य है किन्तु यदि सागारिक का पूज्य स्वयं दे तो कल्प्य है ।'
निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को पाँच प्रकार के वस्त्र धारण करना कल्प्य है : जांगिक, भांगिक, सानक, पोतक और तिरीटपट्टक ।
श्रमण श्रमणियों को पाँच प्रकार के रजोहरण रखना कल्प्य है : औणिक, औष्ट्रिक, सानक, वच्चकचिप्पक और मुंजचिप्पक ।' तृतीय उद्देश :
तृतीय उद्देश में इकतीस सूत्र हैं। उपाश्रय-प्रवेशसम्बन्धी प्रथम सूत्र में बतलाया गया है कि निर्ग्रन्थों को निर्गन्थियों के उपाश्रय में बैठना, सोना, खाना, पीना, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग इत्यादि कुछ भी नहीं करना चाहिए । द्वितीय सूत्र में निर्ग्रन्थियों को निर्ग्रन्थों के उपाश्रय में बैठने आदि की मनाही की गई है।
चर्मविषयक चार सूत्रों में बताया है कि निम्रन्थियों को रोमयुक्त-सलोम चर्म का बैठने आदि में उपयोग करना अकल्प्य है। निग्रन्थ गृहस्थ द्वारा परिभोग किया हुआ-काम में लिया हुआ सलोम चर्म एक रात के लिए अपने काम में ले सकता है। तदनन्तर उसे वापिस मालिक को लौटा देना चाहिए। निग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को कृत्स्न अर्थात् वर्ण-प्रमाणादि से प्रतिपूर्ण चर्म का उपयोग अथवा संग्रह करना अकल्प्य है। वे अकृत्स्न चर्म का उपयोग एवं संग्रह कर सकते हैं।
१. उ. २, सू. २०-३. २. उ० २, सू० २४ (जङ्गमाः साः तदवयवनिष्पमं जाङ्गमिकम् , सूत्रे - प्राकृतत्वाद् मकारलोपः, भङ्गा अतसी तन्मयं भाङ्गिकम् , सनसूत्रम
सानकम् , पोतकं कार्पासिकम् , तिरीटः वृक्षविशेषस्तस्य यः पट्टो वल्कलक्षणस्तनिष्पनं तिरीटपट्टकं नाम पञ्चमम् ). उ. २, सू० २५ ('भौर्णिक ऊरणिकानामूर्णाभिनिर्वृत्तम्, 'भौष्ट्रिक' उष्ट्ररोमभिनिवृत्तम् , सानक' 'सनवृक्षवल्काद् जातम्, 'वञ्चकः' तृणविशेषस्तख 'चिप्पकः' कुट्टितः स्वग्रूपः तेन निष्पन्नं वच्चकचिप्पकम्, 'मुजः' शरस्तम्भस्तस्य चिप्पकाद् जातं मुजचिप्पकं नाम पञ्चममिति ).
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