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________________ बृहत्कल्प २४१ अकल्प्य है । दूसरे शब्दों में निर्ग्रन्थों को पुरुष - सागारिक एवं निर्ग्रन्थियों को - सागरिक के उपाश्रय में रहना कल्प्य है । प्रतिबद्धशय्याप्रकृत सूत्रों में बताया गया है कि जिस उपाश्रय के समीप ( सटे हुए - प्रतिबद्ध ) गृहस्थ रहते हों वहाँ साधुओं को नहीं रहना चाहिए किन्तु साध्वियाँ रह सकती हैं । गृहपतिकुलमध्यवासविषयक सूत्रों में निर्ग्रन्थों एवं निर्ग्रन्थियों दोनों के लिए गृहपतिकुलमध्यवास अर्थात् गृहस्थ के घर के बीचोबीच होकर जाने-आने का काम पड़ता हो वैसे स्थान में रहने का निषेध किया गया है । अधिकरण ( अथवा प्राभृत अथवा व्यवशमन ) से सम्बन्धित सूत्र में सूत्रकार ने इस बात की ओर निर्देश किया है कि भिक्षु, आचार्य, उपाध्याय, भिक्षुणी आदि का एक दूसरे से झगड़ा हुआ हो तो परस्पर उपशम धारण कर कलहअधिकरण- प्राभृत' शान्त कर लेना चाहिए। जो शान्त होता है वह आराधक है। और जो शान्त नहीं होता वह विराधक है । श्रमणधर्म का सार उपशम अर्थात् शान्ति है : उवसमसारं सामण्णं । चारसम्बन्धी प्रथम सूत्र में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के लिए चातुर्मास - वर्षाऋतु में एक गाँव से दूसरे गाँव जाने का निषेध किया गया है तथा द्वितीय सूत्र में हेमन्त एवं ग्रीष्मऋतु में विहार करने — विचरने का विधान किया गया है । वैराज्यविषयक सूत्र में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को विरुद्ध राज्य - प्रतिकूल क्षेत्र में तत्काल —- तुरन्त आने-जाने की मनाही की गई है । जो निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी विरुद्ध राज्य में तुरन्त आता-जाता है अथवा आने-जाने वाले का अनुमोदन करता है उसे चतुर्गुरु प्रायश्चित्त करना पड़ता है । अवग्रहसम्बन्धी प्रथम दो सूत्रों में यह बताया गया है कि गृहपति के यहाँ भिक्षाचर्या के लिए गए हुए अथवा स्थण्डिलभूमि - शौच आदि के लिए जाते हुए निर्ग्रन्थ को कोई वस्त्र, पात्र, कम्बल आदि के लिए उपनिमन्त्रित करे तो उसे वस्त्रादि उपकरण लेकर अपने आचार्य के पास उपस्थित होना चाहिए एवं आचार्य १. अधिकरणं कलहः प्राभृतमित्येकोऽर्थः । - क्षेमकीतिर्वृत वृत्ति, पृ०७५१. विनय-पिटक में अधिकरण का सुन्दर विवेचन किया गया है । इसके लिए जिज्ञासु को उसका चार अधिकरणवाला प्रकरण देखना चाहिए । १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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