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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास की स्वीकृति प्राप्त होने पर ही उन्हें अपने पास रखना चाहिए । तृतीय एवं चतुर्थ सूत्र में बताया गया है कि गृहपति के यहाँ भिक्षाचर्या के लिए गई हुई अथवा स्थण्डिलभूमि आदि के लिए निकली हुई निर्ग्रन्थी को कोई वस्त्रादि के लिए उपनिमन्त्रित करे तो उसे वस्त्रादि ग्रहण कर प्रवर्तिनी के समक्ष उपस्थित होना चाहिए एवं उसकी स्वीकृति लेकर ही उन उपकरणों का उपयोग करना चाहिए | रात्रिभक्तविषयक प्रथम सूत्र में साधु-साध्वियों के लिए रात्रि के समय अथवा विकाल - असमय में आहार आदि ग्रहण करने का निषेध किया गया है । द्वितीय सूत्र में आपवादिक कारणों से पूर्वप्रतिलिखित ( निरीक्षित ) वसति, शय्या, संस्तारक आदि के ग्रहण की छूट दी गई है । २४२ रात्रिवस्त्रादिग्रहणप्रकृत सूत्र में साधु-साध्वियों के लिए रात के समय अथवा विकाल में वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरणादिक के ग्रहण का निषेध किया गया है । अपवाद के रूप वस्त्रादिक चोर उठा ले हृताहृतिका प्रकृतसूत्र रात्रिवस्त्रादिग्रहणप्रकृत सूत्र के है । इसमें यह बताया गया है कि साधु अथवा साध्वी के गए हों और वे वापिस मिल गये हों तो उन्हें रात्रि के समय भी ले लेना चाहिए । उन वस्त्रों को यदि चोरों ने पहिने हों, धोये हों, रंगे हों, घोटे हों, मुलायम किये हों, धूप आदि से सुगन्धित किये हों तथापि वे ग्रहणीय हैं । अध्वगमनप्रकृत सूत्र में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के रात्रिगमन अथवा विकाल - विहार का निषेध किया गया है । इसी प्रकार आगे के सूत्र में यह बताया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को रात्रि अथवा विकाल के समय संखडि में अर्थात् दावत आदि के अवसर पर तन्निमित्त कहीं नहीं जाना चाहिए । विचारभूमि एवं विहारभूमिसम्बन्धी प्रथम सूत्र में आचार्य ने बताया है कि निर्ग्रन्थों को रात्रि के समय विचारभूमि-उच्चारभूमि अथवा विहारभूमि - स्वाध्यायभूमि में अकेले जाना अकल्प्य है । आवश्यकता होने पर उन्हें अपने साथ अन्य साधु अथवा साधुओं को लेकर ही बाहर निकलना चाहिए । न्थियों को भी रात्रि के समय अकेले बाहर नहीं जाना चाहिए । इसी प्रकार निर्य आर्यक्षेत्रविषयक सूत्र में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के विहारयोग्य क्षेत्र की मर्यादा पर प्रकाश डाला गया है। पूर्व में अंगदेश ( चम्पा ) एवं मगधदेश ( राजगृह ) तक, दक्षिण में कौशाम्बी तक, पश्चिम में स्थूणा तक एवं उत्तर में कुणाला तक आर्यक्षेत्र है | अतः साधु-साध्वियों को इसी क्षेत्र में विचरना चाहिए । इससे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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