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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास मिलते हों, जिसके एक ओर अथवा दोनों ओर दुकानें हों वहाँ साध्वियों को नहीं रहना चाहिए । साधु इस प्रकार के स्थानों में यतनापूर्वक रह सकते हैं । २४० अपावृतद्वारोपाश्रयविषयक सूत्रों में बतलाया गया है कि निर्ग्रन्थियों को बिना दरवाजे के खुले उपाश्रय में नहीं रहना चाहिए । द्वारयुक्त उपाश्रय न मिलने की दशा में अपवादरूप से परदा लगाकर रहना कल्प्य है । निर्ग्रन्थों को बिना दरवाजे के उपाश्रय में रहना कल्प्य है । घटीमात्रप्रकृत सूत्रों में निर्ग्रन्थियों के लिए एवं उसका उपयोग करने का विधान किया गया है रखने एवं उसका उपयोग करने का निषेध किया गया है । घटीमात्रक ( घड़ा ) रखने जबकि निर्ग्रन्थों के लिए घट चिलिमिलिकाप्रकृत सूत्र में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को कपड़े की चिलिमिलिका ( परदा ) रखने एवं उसका उपयोग करने की अनुमति प्रदान की गई है । दकतीरप्रकृत सूत्र में सूत्रकार ने बतलाया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को जलाशय आदि के समीप अथवा किनारे खड़े रहना, बैठना, लेटना, सोना, खानापीना, स्वाध्याय - ध्यान- कायोत्सर्ग आदि करना अकल्य है । चित्रकर्मविषयक सूत्रों में बताया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को चित्रकर्मयुक्त उपाश्रय में नहीं रहना चाहिए अपितु चित्रकर्मरहित उपाश्रय में ठहरना चाहिए । सागारिकनिश्राविषयक सूत्रों में बताया है कि निर्ग्रन्थियों को सागारिकशय्यातर - वसतिपति-- मकानमालिक की निश्रा - रक्षा आदि की स्वीकृति के बिना कहीं पर भी नहीं रहना चाहिए । उन्हें सागारिक की निश्रा में ही रहना कल्प्य है । निर्ग्रन्थ सागारिक की निश्रा अथवा अनिश्रा में रह सकते हैं । सागारिकापाश्रयप्रकृत सूत्रों में इस बात का विचार किया गया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को सागारिक के सम्बन्ध वाले - स्त्री-पुरुष, धन-धान्य आदि से युक्त — उपाश्रय में नहीं रहना चाहिए । निर्ग्रन्थों को स्त्री- सागारिक के उपाश्रय में रहना अकल्प्य है । निर्ग्रन्थियों को पुरुष- सागारिक के उपाश्रय में रहना १. नो कप्पइ निग्गंधीणं आवणगिहंसि वा रच्छा मुहंसि वा सिंघाडगंसि वा चक्कसि वा चच्चरंसि वा अंतरावर्णसि वा वत्थए । कप्पइ निग्गंथाणं आवणगिहंसि वा जाव अंतरावर्णसि वा वत्थए । 1- क्षेमकीर्तिकृत वृत्ति, २. 'घटीमात्रकं' घटीसंस्थानं मृन्मयभाजन विशेषं पृ० ६७०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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