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________________ दशा तस्कन्ध चम्पा है और राजा का नाम कोणिक जबकि प्रस्तुत उद्देश में नगर का नाम राजगृह एवं राजा का नाम श्रेणिक है। भगवान् महावीर के दर्शनार्थ आये हुए राजा श्रेणिक एवं रानी चेलणा की ऐश्वर्यपूर्ण सुख-समृद्धि को देखकर महावीर के प्रत्येक निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी-साधु साध्वी के चित्त में एक संकल्प उत्पन्न हुआ। साधु सोचने लगे कि हमने देवलोक में देवों को नहीं देखा है। हमारे लिए तो अणिक ही साक्षात् देव है। यदि इस तप, नियम, ब्रह्मचर्य आदि का कोई फल है तो हम भी भविष्य में इसी प्रकार के उदार काम-भोगों का भोग करते हुए विचरें । महारानी चेलणा को देख कर साध्वियाँ सोचने लगी कि यह चेलणा देवी अत्यन्त ऐश्वर्यशालिनी है जो विविध प्रकार के अलंकारों से विभूषित होकर राजा श्रेणिक के साथ उत्तमोत्तम भोगों का भोग करती हुई विचरती है। हमने देवलोक की देवियाँ नहीं देखी हैं। हमारे लिए तो यही साक्षात् देवी है। यदि हमारे इस चारित्र, तप, नियम, ब्रह्मचर्य आदि का कोई फल है तो हम भी आगामी जन्म में इसी प्रकार के उत्तम भोगों का भोग करती हुई विचरें। भगवान् महावीर ने उन साधु-साध्वियों के चित्त की भावना जान ली। भगवान् उन्हें आमन्त्रित कर कहने लगे-श्रेणिक राजा और चेलणा देवी को देख कर तुम लोगों के चित्त में इस प्रकार का संकल्प उत्पन्न हुआ है आदि। क्या यह बात ठीक है ? उपस्थित साधु-साध्वियों ने सविनय उत्तर दिया-हाँ भगवन् ! यह बात ठीक है। तदनन्तर भगवान् महावीर कहने लगे हे दीर्घजीवी श्रमणो! मेरा प्रतिपादित यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन सत्य है, सर्वोत्तम है, प्रतिपूर्ण है, अद्वितीय है, संशुद्ध है, मोक्षप्रद है, माया आदि शल्य का विनाश करने वाला है, सिद्धि-मार्ग है, मुक्ति-मार्ग है, निर्याण-मार्ग है, निर्वाण-मार्ग है, यथार्थ है, सन्देह-रहित है, अव्यवच्छिन्न है, सब प्रकार के दुःखों को क्षीण करने वाला है। इस मार्ग में स्थित जीव सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण प्राप्त करते हैं, सब दुःखों का नाश करते हैं। इस प्रकार के धर्म-मार्ग में प्रवृत्त साधु भी काम-विकारों के उदय के कारण ऐश्वर्यशाली व्यक्तियों को देख कर अपने मार्ग से विचलित हो जाता है एवं अपने चित्त में संकल्प-निदान करता है कि यदि इस तप, नियम, ब्रह्मचर्य आदि का कोई फल है आदि । हे चिरजीवी श्रमणो! इस प्रकार का निदान-कर्म करने वाला निग्रन्थ उस कर्म का बिना प्रायश्चित्त किए मृत्यु को प्राप्तकर अंत समय में किसी देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होता है। महर्दिक व चिरस्थिति वाले देवलोक में वह महर्द्धिक एवं चिरस्थिति वाला देव हो जाता है । वहाँ से आयु का क्षय होने पर देवशरीर को त्याग कर मनुष्यलोक में ऐश्वर्ययुक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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