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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास बार-बार प्रयोग करता है वह महामोहनीय-कर्म की उपार्जना करता है। (२७) जो अपनी प्रशंसा के लिए अथवा दूसरों से मित्रता करने के लिए अधार्मिक योगों ( वशीकरणादि) का बार-बार प्रयोग करता है वह महामोहनीय कर्म का भागी होता है। (२८) जो व्यक्ति मनुष्य अथवा देवविषयक काम भोगों की हमेशा अभिलाषा रखता है-कभी तृप्त नहीं होता वह महामोहनीय-कर्म का उपार्जन करता है। (२९) जो देवों की ऋद्धि, द्युति, यश, वर्ण, बल, वीर्य आदि की निन्दा करता है-अवर्णवाद करता है उसे महामोहनीय-कर्म का भागी होना पड़ता है। (३०) जो अज्ञानी अपनी पूजा-प्रतिष्ठा की भावना से देव, यक्ष आदि को प्रत्यक्ष न देखता हुआ भी कहता है कि मैं इन्हें देखता हूँ वह महामोहनीय का बन्ध करता है । अशुभ कर्मफल देने वाले एवं चित्त की मलीनता बढ़ाने वाले उपर्युक्त मोहनीय-स्थान आत्मोन्नति में बाधक हैं। जो भिक्षु-मुनि आत्म-गवेषणा में संलग्न है उसे इन्हें छोड़कर संयम-क्रिया में प्रवृत्त होना चाहिए। आयति-स्थान:
दशम उद्देश का नाम 'आयति-स्थान' है। इसमें विभिन्न निदान-कर्मों का वर्णन किया गया है । निदान (णियाण-णिदाण) का अर्थ है मोह के प्रभाव से कामादि इच्छाओं की उत्पत्ति के कारण होने वाला इच्छापूर्तिमूलक संकल्प । जब मनुष्य के चित्त में मोह के प्रबल प्रभाव के कारण कामादि इच्छाएँ जाग उठती हैं तब वह उनकी पूर्ति की आशा से तद्विषयक दृढ़ संकल्प करता है। इसी संकल्प का नाम निदान है। निदान के कारण मनुष्य की इच्छाविशेष भविष्यकाल में भी बराबर बनी रहती है। परिणामत: वह जन्म-मरण के बन्धन में फंसा रहता है। भविष्यकालीन जन्म-मरण की दृष्टि से ही प्रस्तुत उद्देश का नाम 'आयति-स्थान' रखा गया है। 'आयति' का अर्थ है जन्म अथवा जाति । निदान जन्म का हेतु होने के कारण आयति-स्थान माना गया है। अथवा 'आयति' पद से 'ति' पृथक कर देने पर अवशिष्ट 'आय' का अर्थ 'लाभ' भी होता है । जिस निदान-कर्म से जन्म-मरण का लाभ होता है उसी का नाम 'आयति' है ।
प्रस्तुत उद्देश के प्रारम्भ में उपोद्धात (भूमिका) के रूप में संक्षेप में राजगृह नगर के गुणशील नामक चैत्य में भगवान् महावीर के पदार्पण करने एवं जनता के उनके दर्शनार्थ पहुँचने आदि का वर्णन किया गया है । एतद्विषयक विस्तृत वर्णन औपपातिक उपांग में उपलब्ध है। औपपातिक के आख्यान एवं प्रस्तुत सूत्र के कथानक में इतना ही अन्तर है कि औपपातिक में नगरी का नाम
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