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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
कुल ( उग्रकुल, महामातृककुल, भोगकुल) में पुत्ररूप से उत्पन्न होता है। वहाँ वह रूपसम्पन्न एवं सुकुमार हाथ-पैर वाला बालक होता है। तदनन्तर वह बाल-भाव को छोड़ कर विज्ञानप्रतिपन्न युवक बनता है एवं स्वाभाविकतः पैतृक सम्पत्ति का अधिकारी हो जाता है। फिर वह घर में प्रवेश करते हुए एवं घर से बाहर निकलते हुए अनेक दास-दासियों से घिरा रहता है। क्या इस प्रकार के पुरुषों को श्रमण या ब्राह्मण (माहण ) केवलि-प्रतिपादित धर्म सुना सकता है ? हाँ, सुना सकता है किन्तु यह सम्भव नहीं कि वह उस धर्म को सुने क्योंकि वह उस धर्म को सुनने योग्य नहीं होता । वह कैसा होता है ? उत्कट इच्छाओं वाला, बड़े-बड़े कार्यों को प्रारम्भ करने वाला, अधार्मिक एवं दुर्लभ-बोधि होता है। हे चिरजीवी श्रमणो! इस प्रकार निदान कर्म का पापरूप फल होता है जिसके कारण आत्मा में केवलि-प्रतिपादित धर्म को सुनने की शक्ति नहीं रहती। निर्ग्रन्थी के निदान-कर्म के विषय में भी यही बात समझनी चाहिए। वह देवीरूप व वालिकारूप से उत्पन्न होती हुई सांसारिक ऐश्वर्यों का भोग करती है। इस प्रकार सूत्रकार ने प्रस्तुत उद्देश में नौ प्रकार के निदान-कर्मों का वर्णन किया है एवं अन्त में बताया है कि यह निर्ग्रन्थ-प्रवचन सब प्रकार के दुःखों का अन्त करने वाला है। प्रवचन में श्रद्धा रखने वाला संयम की साधना करता हुआ सब रागों से विरक्त होता है, सब कामों से विरक्त होता है, सब प्रकार की आसक्ति को छोड़ता हुआ चारित्र में दृढ़ होता है। परिणामतः वह सब प्रकार के दुःखों का अन्त करके शाश्वत सिद्धि-सुख को प्राप्त करता है।
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