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जैन साहित्य का वृहद् इतिहास अवग्रह-मति सम्पदा के पुनः छः भेद हैं : क्षिप्रग्रहण, बहुग्रहण, बहुविधग्रहण, ध्रुवग्रहण, अनिश्रितग्रहण और असंदिग्धग्रहण । इसी प्रकार ईहा और अबाय के भी छः प्रकार हैं। धारणा-मति-सम्पदा के निम्नोक्त ६ भेद हैं : बहुधारण, बहुविधधारण, पुरातनधारण, दुद्धरधारण, अनिश्रितधारण और असंदिग्धधारण।
प्रयोगमति-सम्पदा चार प्रकार की है : १. अपनी शक्ति के अनुसार वादविवाद करना, २. परिषद् को देख कर वाद-विवाद करना, ३. क्षेत्र को देख कर वाद-विवाद करना, ४. वस्तु को देख कर वाद-विवाद करना।
संग्रह परिज्ञा-सम्पदा के चार भेद हैं : १. वर्षाऋतु में सब मुनियों के निवास के लिए योग्य स्थान की परीक्षा करना, २. सब मुनियों के लिए प्रातिहारिक ( लौटाये जाने वाले) पीठ-फलक-शय्या संस्तारक की व्यवस्था करना, ३. नियत समय पर प्रत्येक कार्य करना, ४. अपने से बड़ों की पूजा-प्रतिष्ठा करना।
गणि-सम्पदाओं का वर्णन करने के बाद सूत्रकार ने तत्सम्बद्ध चतुर्विध विनयप्रतिपत्ति का स्वरूप बताया है : आचार-विनय, श्रुत-विनय, विक्षेपणा-विनय और दोषनिर्घात-विनय । यह गुरुसम्बन्धी विनय-प्रतिपत्ति है। इसी प्रकार शिष्यसम्बन्धी विनय-प्रतिपत्ति भी चार प्रकार की होती है : उपकरणोत्पादनता, सहायता, वर्णसंज्वलनता (गुणानुवादकता) और भार-प्रत्यवरोहणता। इन आठ प्रकार की विनय-प्रतिपत्तियों के पुनः चार-चार भेद किये गये हैं। इस प्रकार प्रस्तुत उद्देश में कुल बत्तीस प्रकार की विनय-प्रतिपत्ति का निरूपण किया गया है। चित्तसमाधि स्थान: ____ पाँचवें उद्देश में आचार्य ने दस प्रकार के चित्तसमाधि-स्थानों का वर्णन किया है : १. धर्मभावना, २. स्वप्नदर्शन, ३. जातिस्मरण-ज्ञान, ४. देवदर्शन, ५. अअधिज्ञान, ६. अवधिदर्शन, ७. मनःपर्ययज्ञान, ८. केवलज्ञान, ९. केवलदर्शन, १०. केवलमरण (केवलज्ञानयुक्त मृत्यु)। इन दस स्थानों का सत्रह गाथाओं में उपसंहार किया गया है जिसमें मोहनीय कर्म की विशिष्टता पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। उपासक प्रतिमाएँ:
छठे उद्देश में ग्यारह प्रकार की उपासक-प्रतिमाओं (श्रावक प्रतिमाओंसाधना की भूमिकाओं) का वर्णन किया गया है। प्रारम्भ में मिथ्यादृष्टि के
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