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दशाश्रुतस्कन्ध
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निगड - बन्धन ( बेड़ियाँ
(
विविध अवगुण गिनाये गये हैं । मिथ्यादृष्टि ( नास्तिक ) न्याय और अन्याय का विचार न करते हुए जिसे जैसा चाहता है वैसा दण्ड दे बैठता है । इस प्रसंग पर सूत्रकार ने निम्नलिखित दण्डों का उल्लेख किया है : सम्पत्ति-हरण, मुण्डन, तर्जन, ताडन, अन्दुक बन्धन ( जंजीरों से बाँधना ), डालना ), हठ-बन्धन ( काष्ठ से बाँधना ), चारक बन्धन निगड - युगल-संकुटन ( अङ्गों को मोड़कर बाँध देना ), कर्ण-छेदन, नासिका-छेदन, ओष्ठ-छेदन, शीर्ष-छेदन, मुख-छेदन, वेद-छेदन ( जननेन्द्रिय-छेदन ), हृदय-उत्पाटन, नयनादि - उत्पाटन, उल्लम्बन ( वृक्ष आदि पर लटकाना ), घर्षण, घोलन, शूलायन ( शूली पर लटकाना ), शूलाभेदन ( शूली से टुकड़े करना ), क्षार-वर्तन ( घाव पर नमक आदि का सिंचन करना ), दर्भ-वर्तन ( घास आदि से पीड़ा पहुँचाना ), सिंह- पुच्छन ( सिंह की पूँछ से बाँधना ), वृषभ-पुच्छन ( बैल की पूँछ से बाँधना ), दावाग्नि- दग्धन ( दावाग्नि में जलाना ), काकिणी-मांस खादन ( अपराधी के मांस के छोटे-छोटे टुकड़े कर उसी को खिलाना ), भक्त - पान -निरोध ( खान-पान बन्द कर देना ), यावज्जीवन - बन्धन, अन्यतर अशुभ कुमारण ( अन्य अशुभ मौत से मारना ), शीतोदककायवूडन ( ठण्डे पानी में डुबा देना ), उष्णोदक- कार्यसिंचन ( गरम पानी शरीर पर छींटना ), अग्नि दाह ( आग में जला देना ), योक्त्र - वेत्र - नेत्र- कशलघुकश-लताजन्य पार्श्वोद्दालन ( चाबुक आदि से पीठ की चमड़ी उधेड़ देना ), दण्ड-अस्थि-मुष्टि-लेष्टुक- कपालजन्य कायाकुट्टन ( डण्डे आदि से शरीर को पीड़ा पहुँचाना ) |
सम्यग्दृष्टि अर्थात् आस्तिक ( आहियदिही ) के गुणों का वर्णन करते हुए सूत्रकार ने उपासक की एकादश प्रतिमाओं का इस प्रकार वर्णन किया है :
कारागृह में डालना ), हस्तछेदन, पाद-छेदन,
प्रथम प्रतिमा में सर्वधर्मविषयक रुचि होती है । इसमें अनेक शीलव्रत, गुणवत, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास आदि सम्यक्तया आत्मा में स्थापित नहीं होते ।
द्वितीय प्रतिमा में अनेक शीलव्रत, गुणवत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास आदि धारण किये जाते हैं किन्तु सामायिक व्रत एवं देशावकाशिक
( नवम एवं दशम श्रावक व्रत ) का सम्यक्तया पालन नहीं होता ।
तृतीय प्रतिमा में सामायिक एवं देशावकाशिक व्रतों की सम्यक् अनुपालना होते हुए भी चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या एवं पूर्णिमा के दिन पौषधोपवास- व्रत ( ग्यारहवाँ व्रत ) की सम्यक् आराधना नहीं होती ।
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