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दशाश्रुतस्कन्ध
परिषद् के उठने, भिन्न होने, व्यवच्छिन्न होने अथवा बिखरने के पूर्व उसी कथा को दो-तीन बार कहना ( शिष्य अपना प्रभाव जमाने के लिए ऐसा करता है ), ३१. गुरु के शय्या संस्तारक को पैर से छूकर बिना अपराध स्वीकार किये चले जाना, ३२. गुरु के शय्या - संस्तारक पर बैठना, सोना अथवा खड़ा होना, ३३. गुरु से ऊँचे आसन पर अथवा गुरु के बराबरी के आसन पर खड़ा होना, बैठना अथवा शयन करना ।
गणि-सम्पदा :
चतुर्थ उद्देश में आठ प्रकार की गणि-सम्पदाओं का वर्णन है । साधुओं अथवा ज्ञानादि गुणों के समुदाय को "गण" कहते हैं । "गण" का जो अधिपति होता हैं वही "गणी" कहलाता है । प्रस्तुत उद्देश में इसी प्रकार के गणी की सम्पदा - सम्पत्ति का वर्णन किया गया है । गणि-सम्पदा आठ प्रकार की है : ३. शरीर - सम्पदा, ४. वचन • सम्पदा, ७. प्रयोगमति - सम्पदा, ८. संग्रह -
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आचार-सम्पदा, २. श्रुत- सम्पदा, ५. वाचना- सम्पदा, ६. मति सम्पदा, परिज्ञा-सम्पदा ।
आचार-सम्पदा चार प्रकार की है : २. अहंकाररहित होना, ३. अनियतवृत्ति स्वभाव वाला ) होना ।
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१. संयम में ध्रुव योगयुक्त होना, होना, ४ वृद्धस्वभावी ( अचञ्चल.
श्रुत-सम्पदा भी चार प्रकार की है : १. बहुश्रुतता, २. परिचितश्रुतता, ३. विचित्रश्रुतता, ४. घोषविशुद्धिकारकता ।
शरीर-सम्पदा के चार भेद हैं : १. शरीर की लम्बाई-चौड़ाई का सम्यक् अनुपात, २. अलजास्पद शरीर, ३. स्थिर संगठन, ४. प्रतिपूर्णेन्द्रियता ।
वचन-सम्पदा चार प्रकार की होती है : १. आदेय वचन ( ग्रहण करने योग्य वाणी ), २. मधुर वचन, ३. अनिश्चित ( प्रतिबन्धरहित ) वचन, ४. असंदिग्ध वचन ।
वाचना-सम्पदा भी चार प्रकार की कही गई है : १. विचारपूर्वक वाच्य विषय का उद्देश निर्देश करना, २ . विचारपूर्वक वाचन करना, ३. उपयुक्त विषय काही विवेचन करना, ४ . अर्थ का सुनिश्चित निरूपण करना ।
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मति-सम्पदा के चार भेद हैं : १. अवग्रत - मति-सम्पदा, २. ईहा - मति-सम्पदा, ३. अवाय-मति - सम्पदा, ४. धारणा-मति-सम्पदा |
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