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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास १७. जानबूझ कर सचित्त (सजीव) शिला आदि पर सोना-बैठना, १८. जानबूझ कर मूल, कन्द, स्कन्ध, त्या , प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल, बीज और हरित का भोजन करना, १९. एकसंवत्सरान्तर्गत दशोदकलेपन ( एक वर्ष के भीतर दस बार जलाशय आदि पार करना), २०. एकसंवत्सरान्तर्गत दशमायास्थान-सेवन ( एक वर्ष में दस बार माया का सेवन करना), २१. जानबूझ कर सचित्त जल से लिप्त हस्त आदि से आहारादि का ग्रहण एवं भोग । . आशातनाएँ:
तीसरे उद्देश में तैंतीस प्रकार की आशातनाओं पर प्रकाश डाला गया है । जिस क्रिया के करने से ज्ञान, दर्शन और चारित्र का ह्रास होता है उसे आशातना-अवज्ञा कहते हैं। तैंतीस प्रकार की आशातनाएँ इस प्रकार हैं : १. शिष्य का रत्नाकर (गुरु आदि) के आगे, २. समश्रेणि में एवं ३. अत्यन्त समीप गमन करना, इसी प्रकार ४-६ खड़ा होना एवं ७-९ बैठना, १०. मलोत्सर्ग आदि के निमित्त एक साथ जाने पर गुरु से पहले शुचि आदि करना, ११. गुरु से पहले आलोचना करना, १२. गुरु से पूर्व किसी से सम्भाषण करना, १३. जागते हुए भी गुरु के वचनों की अवहेलना करना, १४. भिक्षा आदि से लौटने पर पहले गुरु के पास आकर आलोचना न करना, १५. आहार आदि पदार्थ पहले गुरु को न दिखाना, १६. आहारादि के लिए पहले गुरु को निमन्त्रित न करना, १७. गुरु की आज्ञा के बिना ही जिस किसी को आहारादि दे देना, १८. आहार करते समय सरस एवं मनोज्ञ पदार्थों को बड़े-बड़े ग्रास लेकर शीघ्रता से समाप्त करना, १९. गुरु के बुलाने पर ध्यानपूर्वक न सुनना, २०. गुरु के बुलाने पर अपनी जगह बैठे हुए ही सुनते रहना, २१. गुरु के वाक्यों का "क्या है, क्या कहते हैं' आदि शब्दों से उत्तर देना, २२. गुरु को "तुम" शब्द से सम्बोधित करना, २३. गुरु को अत्यन्त कठोर तथा अत्यधिक शब्दों से आमन्त्रित करना, २४. गुरु के ही वचनों को दोहराते हुए गुरु की अवज्ञा करना, २५. गुरु के बोलते हुए बीच में टोकना, २६. गुरु की भूल निकालते हुए स्वयं उस विषय का निरूपण करने लग जाना, २७. गुरु के उपदेश को प्रसन्न चित्त से न सुनना, २८. कथा सुनती हुई परिषद् को भंग करने का प्रयत्न करना, २९. गुरु के कथा कहते हुए बीच में कथा-विच्छेद करना, ३०. गुरु की कथा सुनने के लिए एकत्रित हुई १. १९-२० में नौवें और दसवें दोष की कालमात्रा बढ़ा दी गई है। २. तत्र आयः सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिलक्षणस्तस्य शातना खण्डना निरुक्ता आशातना ।
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