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________________ . दशाश्रुतस्कन्ध २१९ असमाधि-स्थान: प्रथम उद्देश में जिन बीस असमाधि-स्थानों अर्थात् असमाधि के कारणों का उल्लेख किया गया है वे इस प्रकार हैं: १. द्रुत गमन, २. अप्रमार्जित गमन, ३. दुष्प्रमार्जित गमन, ४. अतिरिक्त शय्यासन, ५. रात्निक परिभाषण (आचार्य आदि के सम्मुख तिरस्कारसूचक शब्दप्रयोग ), ६. स्थविरोपघात, ७. भूतोपघात, ८. संज्वलन (प्रतिक्षण रोष करना), ९. क्रोध, १०. पिशुन (पीठ पीछे निन्दा करना), ११. सशंक पदार्थों के विषय में निःशंक भाषण, १२. अनुत्पन्न नूतन कलहों का उत्पादन, १३. क्षमापित कलहों का पुनरुदीरण, १४. अकाल-स्वाध्याय, १५. सरजस्क पाणि-पाद, १६. शब्दकरण (प्रमाण से अधिक शब्द बोलना), १७. झञ्झाकरण ( फूट उत्पन्न करने वाले वचनों का प्रयोग करना ), १८. कलहकरण, १९. सूर्यप्रमाण भोजनकरण (सूर्योदय से सूर्यास्त तक केवल भोजन का ही ध्यान रखना), २०. एषणा-असमिति (भोजनादि की गवेषणा में सावधानी न रखना)। शबल-दोष : द्वितीय उद्देश में इक्कीस प्रकार के शबल-दोषों का वर्णन किया गया है। व्रत आदि से सम्बन्धित विविध दोषों को शबल-दोष कहते हैं। शबल का शब्दार्थ है चित्र वर्ण-शबलं कर्बुरं चित्रम् । प्रस्तुत उद्देश में वर्णित शबलदोष ये हैं : १. हस्तकर्म, २. मैथुनप्रतिसेवन, ३. रात्रिभोजन, ४. आधाकर्म ग्रहण (साधु के निमित्त से बनाये हुए आहारादि का ग्रहण), ५. राजपिंड ग्रहण ( राजा के यहाँ के आहारादि का ग्रहण), ६. क्रीत आदि आहार का ग्रहण, ७. प्रत्याख्यात अर्थात् त्यक्त पदार्थों का भोग, ८. षटमासान्तर्गत गणान्तरसंक्रमण, ९. एकमासान्तर्गत त्रि-उदकलेपन ( एक मास के भीतर तीन बार जलाशय, नदी आदि को पार करना), १०. एकमासान्तर्गत त्रि-मायास्थानसेवन ( एक मास के अन्तर्गत तीन बार माया का सेवन करना), ११. सागारिक अर्थात् स्थानदाता के यहाँ से आहारादि का ग्रहण, १२. जानबूझ कर जीवहिंसा करना, १३. जानबूझ कर असत्य बोलना, १४. जानबूझ कर चोरी करना अर्थात् अनधिकृत वस्तु ग्रहण करना, १५. जानबूझ कर पृथ्वीकाय की हिंसा करना, १६. जानबूझ कर स्निग्ध और सरजस्क भूमि पर बैठना-उठना, .. 'समाधानं समाधिः चेतसः स्वास्थ्यं मोक्षमार्गेऽवस्थानमित्यर्थः' अर्थात् चित्त की स्वस्थ भावना याने मोक्षमार्गाभिमुख प्रवृत्ति ही समाधि है। तद्विपरीत लक्षणवाली असमाधि है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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