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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास णिज्जठाणा, आजाइट्ठाणं । " प्रसिद्ध कल्पसूत्र ( पर्युषणाकल्प ) दशाश्रुतस्कन्ध के पज्जोसवणा नामक अष्टम अध्ययन का ही पल्लवित रूप है । दशाश्रुतस्कन्ध में जैनाचार से सम्बन्धित दस अध्ययन हैं । दस अध्ययनों के कारण ही इस सूत्र का नाम दशाश्रुतस्कन्ध ( दसासुयक्खंध ) अथवा आचारदशा रखा गया है । यह मुख्यतया गद्य में है | २१८ । इतना ही प्रस्तुत छेदसूत्र के प्रथम उद्देश में बीस असमाधि स्थानों का गया है । यह वर्णन समवायांग सूत्र के बीसवें स्थान में उपलब्ध है इतना ही है कि समवायांग में "वीसं असमाहिठाणा पण्णत्ता" कहकर असमाधि स्थानों का वर्णन प्रारंभ करदिया गया है, जबकि प्रस्तुत सूत्र में "सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं." इत्यादि पाठ और जोड़ दिया गया है और कहीं-कहीं स्थान परिवर्तन भी कर दिया गया है। इसी प्रकार दूसरे उद्देश के इक्कीस शबल दोष एवं तीसरे उद्देश की आशातनाएँ भी समवायांग सूत्र में उसी रूप में उपलब्ध हैं । भेद केवल प्रारंभिक वाक्यों में ही है । चतुर्थ उद्देश में आठ प्रकार की गणि-सम्पदा का विस्तृत वर्णन है । इन संपदाओं का केवल नाम-निर्देश स्थानांग सूत्र के आठवें स्थान में है । पंचम उद्देश में द चित्त-समाधियों का वर्णन है । इसमें से केवल उपोद्घात अंश संक्षिप्त रूप में औपपातिक सूत्र में उपलब्ध है । दस चित्त-समाधियों का गद्यरूप पाठ समवायांग सूत्र के दसवें स्थान में मिलता है । षष्ठ उद्देश में श्रमणोपासक - श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन किया गया है। इसका सूत्ररूप मूल पाठ समवायांग के ग्यारहवें स्थान में मिलता है। सातवें उद्देश में बारह भिक्षु प्रतिमाओं का विवेचन किया गया है । इसका मूल समवायांग के बारहवें स्थान में एवं विवेचन स्थानांग के तीसरे स्थान तथा व्याख्याप्रज्ञप्ति - भगवती, अंतकृद्दशा आदि सूत्रों में उपलब्ध है । आठवें उद्देश में श्रमण भगवान् महावीर के पाँच कल्याणों - पंचकल्याणक का वर्णन है । इसका मूल स्थानांग में पंचम स्थान में है। नवर्वे उद्देश में तीस महामोहनीय स्थानों का वर्णन है इसका उपोद्घात अंश औपपातिक सूत्र में एवं शेष समवायांग के तीसवें स्थान में है । दसवें उद्देश में निदान - कर्म का वर्णन है । 1 इसका उपोद्घात संक्षेप में औपपातिक सूत्र में उपलब्ध है । । वर्णन किया भेद केवल (ख) विनयविजयविरचित वृत्तिसहित - हीरालाल हंसराज, जामनगर, सन् १९३९; गुजराती अनुवाद - मेघजी हीरजी जैन बुकसेलर, बम्बई, वि० सं० १९८१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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