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________________ २१६ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अनिवार्य है। केवल नियमनिर्माण अथवा अपवादव्यवस्था से ही कोई विधान पूर्ण नहीं हो जाता। उसके समुचित पालन के लिए तद्विषयक दोषों की संभावना का विचार भी आवश्यक है। जब दोषों का विचार किया जायगा तब उनके लिए दंड व्यवस्था भी अनिवार्य हो ही जाएगी क्योंकि केवल दोष-विचार से किसी लक्ष्य की सिद्धि नहीं होती जब तक कि प्रायश्चित्त द्वारा दोषों की शुद्धि न की जाए। प्रायश्चित्त से अर्थात् दंड से दोषशुद्धि होने के साथ ही साथ नये दोषों में भी कमी होती जाती है। पालिग्रन्थ विनय-पिटक में बौद्ध भिक्षुओं के आचार-विचार का इसी प्रकार विवेचन किया गया है । छेदसूत्रों के नियमों की विनय-पिटक के नियमों से बड़ी रोचक तुलना की जासकती है। . छेदसूत्रों का जैनागमों में अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन संस्कृति का सार श्रमण-धर्म है। श्रमण-धर्म की सिद्धि के लिए आचार-धर्म की साधना अनिवार्य है। आचार-धर्म के गूढ रहस्य एवं सूक्ष्मतम क्रियाकलाप को विशुद्ध रूप में समझने के लिए छेदसूत्रों का ज्ञान अनिवार्य है। छेदसूत्रों के ज्ञान के बिना जैताभिमत निर्दोष आचार का परिपालन असम्भव है । जैन निर्ग्रन्थ-श्रमणसाधु-भिक्षु-यति-मुनि के आचरण से सम्बन्धित प्रत्येक प्रकार की क्रिया का सूक्ष्म दृष्टि से स्पष्ट विवेचन करना छेदसूत्रों की विशेषता है। संक्षेप में छेदसूत्र जैन आचार की कुंजी है, जैन संस्कृति की अद्वितीय निधि है, जैन साहित्य की गरिमा है । हम इस अद्भुत सांस्कृतिक सम्पत्ति के लिए सूत्रकारों के अत्यन्त ऋणी हैं। आगे दिये जाने वाले छेदसूत्रों के विस्तृत परिचय से यह बात स्पष्ट हो जायगी कि जैन आगम-ग्रन्थों में छेदसूत्रों का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है। दशाश्रुतस्कन्ध अथवा आचारदशा : दशाश्रुतस्कन्ध' सूत्र का दूसरा नाम आचारदशा भी है। स्थानांग सूत्र के दसवें स्थान में इसका आचारदशा के नाम से उल्लेख करते हुए एतत्प्रतिपादित दस अध्ययनों-उद्देशों का नामोल्लेख किया गया है : “आचारदसाणं दस १. (अ) अमोलकऋषिकृत हिन्दी अनुवादसहित-सुखदेवसहाय ज्वाला _ प्रसाद, हैदराबाद, वी० सं० २४४५. (आ) उपाध्याय आत्मारामकृत हिन्दी टीकासहित-जैन शास्त्रमाला कार्यालय, सैदमिट्ठा बाजार, लाहौर, सन् १९३६. (इ) मूल-नियुक्ति-चूर्णि-मणिविजयजी गणि ग्रन्थमाला, भावनगर, वि० सं० २०११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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