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________________ २०८ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास हुई रस्सी को पकड़ ले । इससे भी सफलता न मिले तो फिर लटक कर सचमुच ही प्राणों का त्याग कर दे ( ४२२)। आगे परग्राम में भिक्षाटन की विधि बताई है (४३०-४४०)। ग्रहण-एषणा में आत्म-विराधना, संयम-विराधना और प्रवचन विराधना नामक दोषों का उल्लेख है (४२३-६६) । आठ वर्ष से कम उम्र का बालक, वृद्ध, नपुंसक, सुग से उन्मत्त, क्षिप्तचित्त, शत्रु-पराजय आदि के कारण गर्विष्ठ, यक्षाभिभूल, हाथ-कटा, पैर-कटा, अन्धा, बेड़ी पड़ा हुआ, कोढ़ी, तथा गर्भिणी, बालवत्स वाली, छड़ती, पिछोड़ती, पीसती, कूटती और कातती हुई स्त्री से भिक्षा ग्रहण न करने का विधान किया गया है (४६७-६८; भाष्य २४१२४७; नियुक्ति ४६९-४७४ )। नीचे द्वार वाले घर में भिक्षा न ग्रहण करने का विधान है ( ४७६; भाष्य २५१-२५६)। पात्र में डाले हुए भिक्षा-पिण्ड को अच्छी तरह देख लेना चाहिए । सम्भव है किसी ने विष, अस्थि अथवा कंटक आदि भिक्षा में दे दिये हों ( ४८०)। भारी वस्तु से ढके हुए आहार को ग्रहण न करने का विधान है (४८२)। आगे भिक्षा ग्रहण कर वसति में प्रवेश करने की विधि ( ५०२-५०९), आलोचना-विधि (५१३-५२०), गुरु को भिक्षा दिखाना (५२४-५), वैयावृत्य (५३२-५३६) आदि पर प्रकाश डाला गया है। ग्रास-एषणा का प्रतिपादन करते हुए (५३९) संयम का भार वहन करने के लिए ही साधुओं के लिए आहार का विधान किया गया है (५४६ )। प्रकाशयुक्त स्थान में, बड़े मुँहवाले बर्तन में, कुक्कुटी के अण्डों के बराबर ग्रास चना कर, गुरु के समीप बैठकर आहार ग्रहण करे (५५०)। प्रकाश में भोजन करने से गले में अस्थि अथवा कंटक आदि अटक जाने का डर नहीं रहता (भाष्य २७७)। आगे जब साधु भिक्षाटन के लिए गये हों तो वसति के रक्षपाल साधु को क्या करना चाहिए (५५४), आहार करते समय थूकने आदि के लिए तथा अस्थि, कंटक आदि फेंकने के लिए बर्तन रखने का विधान (५६५), भोजन का क्रम ( भाष्य २८३-८), भोजन-शुद्धि (५७६-५७८), वेदना के शमन के लिए, वैयावृत्य के लिए तथा संयम आदि के निमित्त आहार का ग्रहण (५७९-८०), आतंक, उपसर्ग तथा तप आदि के लिए आहार का अग्रहण १. विशेष के लिए देखिए-व्यवहार-भाष्य, भाग ४, गाथा २६७-८, पृ० ५७ आदि; भाग ५, गाथा ७३-७४, पृ० १७; भाग ६, गाथा ३१, पृ० ४; आवश्यक-चूर्णि, पृ० ५३६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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