SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोघनियुक्ति २०७ ( २५६-७९), पौरुषी-प्ररूपणा ( २८१-६), पात्र का भलीभांति निरीक्षण करना ( २८७-२९५), स्थण्डिल का निरीक्षण (२९६-३२१), मल त्याग करने के पश्चात् अपानशुद्धि के लिए ढेले आदि का उपयोग ( ३१२), मल- . मूत्रत्याग की विधि ( ३१३-३१४ ), मल-मूत्र का त्याग करते समय उत्तर और पूर्व दिशा की ओर पीठ न करे, पवन, ग्राम और सूर्य की ओर भी पीठ न करे ( ३१६ ), अवष्टम्भ द्वार (३२२-३२४), मार्ग को अच्छी तरह देखकर चलने का विधान (३२५-६ ) आदि पर प्रकाश डाला गया है । पिण्ड : एषणा के तीन प्रकार हैं:--गवेषण-एषणा, ग्रहण-एषणा और ग्रास-एषणा । साधु इन तीन एषणाओं से विशुद्ध पिंड ग्रहण करते हैं ( ३३०)। द्रव्यपिंड तीन प्रकार का है:-सचित्त, मिश्र और अचित्त । अचित्त के दस भेद तथा सचित्त और मिश्र के नौ भेद हैं (३३५)। आगे चीर-प्रक्षालन के दोष (३४८), चीर-प्रक्षालन न करने के दोष ( ३४९ ), रोगियों के वस्त्र बार-बार धोने का विधान, अन्यथा लोक में जुगुप्सा की आशंका ( ३५१), वस्त्रों को कौन से जल से धोये और पहले किसके वस्त्र धोये ( ३५५-३५६ ), अनिकायपिण्ड ( ३५८), वायुकायपिण्ड ( ३६०), वनस्पतिकायपिण्ड (३६३), द्वीन्द्रियादिकपिण्ड की चर्चा ( ३६५), चर्म, अस्थि, दन्त, नख, रोग, सींग, भेड़ की लेंडी, गोमूत्र, दूध, दही, शिरःकपाल आदि का उपयोग ( ३६८-९), पात्रलेपपिण्ड ( ३७१२), पात्र पर लेप करने में दोष ( भाष्य १९६), पात्र पर लेप न करने में दोष ( ३७३-४), पात्र-लेपन की विधि ( ३७६-४०१), लेप के प्रकार (४०२), प्रमाण, काल और आवश्यक आदि के भेद से गवेषण-एषणा का प्ररूपण ( ४११; भाष्य २१६-२१९), महाव्रतों में दोष ( भाष्य २२१.) आदि बताये गये हैं। कोई विधवा, प्रोषितभर्तृका अथवा रोककर रखी हुई स्त्री यदि साधु को अकेला पाकर घर का द्वार लगा दे और ऐसी हालत में साधु यदि स्त्री की इच्छा करता है तो संयम से भ्रष्ट हो जाता है, यदि नहीं करता है तो स्त्री के द्वारा झूठे ही उसकी बदनामी करने से लोक में हास्यास्पद होने की आशंका रहती है (भाष्य २२२)। यदि कोई स्त्री जबर्दस्ती पकड़ ले तो उसे धर्मोपदेश दे। यदि वह फिर भी न छोड़े तो कहे कि मैं गुरु के समीप जाकर अभी आता हूँ, और वहाँ से चला जाय । फिर भी सफलता न मिले तो कहे कि अच्छा चलो, इस कमरे में व्रतभङ्ग करेंगे। यह कह कर वह आत्मघात करने के लिए, लंटकती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy