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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास कौन किस उपकरण को लेकर गमन करे इसका वर्णन किया गया है ( भाष्य ८८-८९ ) । आचार्य को सब बातों का संकेत कर देना चाहिए कि हम लोग अमुक समय में गमन करेंगे, अमुक जगह ठहरेंगे, अमुक जगह भिक्षा ग्रहण करेंगे, आदि ( भाष्य ९१ ) । इसी प्रकार रात्रिगमन ( भाष्य ९२ ) एवं एकाकीगमन का निषेध किया गया है ( भाष्य ९३ ) । गच्छ के गमन की विधि ( नियुक्ति १७७ ), मार्ग जाननेवाले साधु को साथ रखने ( १७८ ) एवं वसति में पहुँच कर उसका प्रमार्जन करने का विधान किया गया है । यदि भिक्षा का समय हो तो एक साधु प्रमार्जन करे, बाकी भिक्षा के लिए जायें ( १८२ ) । अन्यत्र भोजन करके वसति में प्रवेश ( १८६ - १८९ ), विकाल में वसति में प्रवेश करने से लगने वाले दोष ( १९२ ), विकाल में वसति में प्रवेश करते समय जंगली जानवर, चोर, रक्षपाल, बैल, कुत्ते, वेश्या आदि का डर ( १९३ - १९४ ), उच्चार, प्रस्रवण और वमन के रोकने से होने वाली हानि ( १९७ ) आदि का उल्लेख किया गया है ।' अन्य कोई उपाय न हो तो विकाल में भी प्रवेश किया जा सकता है ( १९८ - २०० ) । ऐसे समय यदि रक्षपाल डरायें तो कहना चाहिए कि हम चोर नहीं हैं ( २०१ ) । २०६ वसति में प्रवेश करने के बाद संथारा लगाने की विधि बताई गई है से एक साधु द्वार पर श्वापद का भय हो विधि बताते हुए ) | यदि वसति यथा- वहाँ रात में गुंडे लोग ), भय ( २०२ - २०६ ) | चोर का भय होने पर दो साधुओं में खड़ा रहे और दूसरा मल-मूत्र ( कायिकी ) का त्याग करे; तो तीन साधु गमन करें ( २०७ ) | ग्राम में भिक्षा की ( २१० ) साधर्मिक कृत्यों पर प्रकाश डाला है ( २१२ - २१६ बहुत बड़ी हो तो उसमें अनेक दोषों की सम्भावना रहती है, कोतवाल, छोटे-मोटे व्यापारी, कार्पेटिक, सरजस्क साधु, वंठ ( दिखाकर आजीविका चलाने वाले ( भीतिजीविणो य ) आदि सो जाते हैं, इससे साधुओं को कष्ट होता है ( २१८ ) । आगे छोटी वसति के दोष ( २२५ ), प्रमाणयुक्त वसति में रहने का विधान ( २२६ ), वसति में शयनविधि (२२९२३० ), आचार्य से पूछकर भिक्षा के लिए गमन ( २४० ), यदि कोई साधु बिना पूछे ही चला गया हो और समय पर न लौटा हो तो उसकी चारों दिशाओं में खोज करने का विधान ( २४६), यदि भिक्षा के लिए गये हुए साधु को चोर आदि उठा ले जायँ तो क्या करना चाहिए ( २४७ - २४८ ), प्रतिलेखनाविधि १. मुत्तनिरोहे चक्खू वच्चनिरोहेण जीवियं चयइ | उड्ढनिरोहे कोट्टं गेलन्नं वा भवे तिसु वि ॥ १९७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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