________________
अोधनियुक्ति ( ५८१-५८२), परिष्ठापनिका-बची हुई भिक्षा के परित्याग की विधि (५९२-५९७), स्थंडिल (शुद्ध भूमि) में मल आदि का त्याग (६१७६२३), आवश्यक-विधि ( ६३५-३७) एवं आवश्यक के लिए कालविधि का ग्ररूपण किया गया है ( ६३८-६६५)। उपधि:
जिनकल्पियों के बारह उपकरण ये हैं-पात्र, पात्रबन्ध, पात्रस्थापन, पात्रकेसरिका ( पात्रमुखवस्त्रिका ), पटल, रजत्राण, गोच्छक, तीन प्रच्छादक ( वस्त्र ), रजोहरण और मुखवस्त्रिका' । इनमें मात्रक और चोलपट्ट मिला देने से स्थविरकल्पियों के चौदह उपकरण हो जाते हैं (६६८-६७०)। आर्यिकाओं के पच्चीस उपकरण इस प्रकार हैं-उक्त चारह उपकरणों में मात्रक, कमढग तथा उग्गहणंतग (गुह्य अङ्ग की रक्षा के लिए; यह नाव के आकार का होता है ). पट्टक ( उग्गहणंतग को दोनों ओर से ढकने वाला; यह वस्त्र जांघिये के समान होता है), अद्धोरुग ( यह उग्गहणंतग और पट्टक के ऊपर पहना जाता है). चलनिका ( यह घुटनों तक आता है; यह बिना सिला हुआ रहता है। बाँस पर खेल करने वाले लोग इसे पहनते थे), अभितर नियंसिणी ( यह आधी जाँघों तक लटका रहता है; इससे वस्त्र बदलते समय लोग साध्वियों को देखकर उनकी हँसी नहीं करते ), बहिनियंसिणी ( यह घुटनों तक लटका रहता है और इसे डोरी से कटि में बांधा जाता है)। निम्न वस्त्र शरीर के ऊपरी भाग में पहने जाते थेकंचुक ( वक्षस्थल को ढकने वाला वस्त्र), उक्कच्छिय ( यह कंचुक के समान होता है), वेकच्छिय (इससे कंचुक और उक्कच्छिय दोनों ढक जाते हैं), संघाडी (ये चार होती थीं-एक प्रतिश्रय में, दूसरी और तीसरी भिक्षा आदि के लिए बाहर जाते समय और चौथी समवसरण में पहनी जाती थी), खन्यकरणी (चार हाथ लम्बा वस्त्र जो वायु आदि से रक्षा करने के लिए पहना जाता था; रूपवती साध्वियों को कुब्जा जैसी दिखाने के लिए भी इसका उपयोग करते थे-नियुक्ति ६७४-७७; भाष्य ३१३-३२०)।
पात्र के लक्षण बताते हुए (६८५-६९०) पात्र आदि ग्रहण करने की आवश्यकता (६९१-७२५) एवं दण्ड, यष्टि, चर्म, चर्मकोश, चर्मच्छेद, योगपट्टक, १. बौद्ध भिक्षुओं के निम्नोक्त आठ परिष्कार हैं :- .
तीन चीवर, एक पात्र, छुरी (बासि), सूची, काय-बन्धन, पानी छानने का कपड़ा (कुंभकार जातक)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org