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________________ २०४ जैन साहित्य का वृहद् इतिहास रहा हो तो उस समय उससे न बोलें, शुचि स्थान में बैठा हो तो रोगी का हाल सुनायें, उपचारविधि को ध्यानपूर्वक सुनें। वैद्य के रहने पर रोगी को वैद्य के समीप ले जायँ । वैद्य के रोगी के पास आने पर गंधोदक आदि से छिड़काव करें (७०)। ग्लान की परिचर्या करें (७१-८३) । भिक्षा के लिए जाते हुए व्याघात ( ८४-८९), भिक्षाके दोष ( ९१), साधु की परीक्षा (९८-१०२), स्थानविधि (१०३-११०), गण की अनुमति लेकर वसति देखने के लिए जाना ( १३१-१३८) आदि का विवेचन करते हुए कहा गया है कि बाल-वृद्ध साधु को इस कार्य के लिए नहीं भेजना चाहिए । वसति को पसंद करते समय उच्चार-प्रस्रवण भूमि, उदकस्थान, विश्रामस्थान, भिक्षास्थान, अन्तर्वसति, चोर, जंगली जानवर और आसपास के मार्गों को भलीभाँति देखना चाहिए ( भाष्य ६९-७२)। कौनसी दिशा में वसति होने से कलह होता है, कौनसी दिशा में होने से उदररोग होता है और कौनसी दिशा में होने से पूजा-सत्कार होता है-इसका वर्णन किया गया है (भाष्य, ७६-७७)। संथारे के लिए तृण का और अपान-प्रदेश पोंछने के लिए मिट्टी आदि के ढेलों ( डगलक) का उपयोग ( भाष्य ७८), वसति के मालिक ( शय्यातर ) से वसति में ठहरने साथ ही ऐसा भी मालूम होता है कि कुछ अपने आचार-विचार में अत्यन्त दृढ़ थे। उनका कहना थावरं प्रवेष्टुं ज्वलितं हुताशनं न चापि भग्नं चिरसंचितं व्रतम् । वरं हि मृत्युः सुविशुद्धकर्मणो न चापि शीलस्खलितस्य जीवितम् ॥ अर्थात् अग्नि में जलकर मर जाना अच्छा, लेकिन चिरसंचित व्रत का भग्न करना ठीक नहीं। सुविशुद्ध कर्मों का आचरण करते हुए मृत्यु का आलिंगन करना उचित है, लेकिन अपने शीलवत से स्खलित होना उचित नहीं (बृहत्कल्पभाष्य, ४, ४९४९)। इस संबन्ध में भगवती-आराधना (गाथा ६१२-३, ६२५ आदि) भी देखनी चाहिए। १. इसका विस्तृत वर्णन बृहत्कल्पभाष्य (३, ८१४) में किया गया है। कभी-कभी हंस आदि के खिलौने बनाकर साधुओं को वैद्यराज की फीस का प्रबन्ध करना पड़ता था। वैद्य के घर किस अवस्था में जाय, इसके लिए देखिए-सुश्रुतसंहिता, अध्याय २९, पृ० १७३. २. विशेष के लिए देखिए-बृहत्कल्पभाष्य, गा. ४२६३, पृ० ११५६; गा. ४४१-४५७, पृ० १२८-१३३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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