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भोधनियुक्ति व्यापार अयत्नशील साधु के लिए कर्म-बन्धन में और यत्नशील साधु के लिए निर्वाण में कारण होते हैं (५४)।
ग्राम में प्रवेश, रुग्ण साधु का वैयावृत्य, वैद्य के पास गमन आदि के विषय में बताया गया है कि तीन, पाँच या सात साधु मिलकर जायं, स्वच्छ वस्त्र धारण करके जाय, शकुन देखकर जायं । वैद्य यदि किसी के फोड़े में नश्तर लगा
चलता हो तो ऐसी हालत में विराधान भी की जा सकती है (जइ सक्का तो अविराहिंतेहिं, विराहिंतेहिं वि ण दोसो, पीठिका, पृ० १००)। यहाँ एक साधु द्वारा कोंकण की भयानक अटवी में संघ की रक्षार्थ तीन शेरों के मारने का उल्लेख है। इसी प्रकार उड्डाह की रक्षा के लिए, संयम के निर्वाह के लिए, बोधिक नामक चोरों से संघ की रक्षा के लिए, प्रत्यनीक क्षेत्रों में, नवदीक्षित साधु के निमित्त तथा लोकनिमित्त मृषा भाषण करने का विधान है (वही, पृ० ११२)। अशिव, दुर्भिक्ष, राजद्वेष, चोरादि का भय और साधु की ग्लानि आदि अवस्थाओं में अदत्तादान का विधान किया गया है (वही, पृ० ११९)। ये सब अपवाद अवस्था के ही विधान हैं। अब प्रश्न होता है कि ब्रह्मचर्य व्रत में अपवाद हो सकता है या नहीं? इस प्रश्न का वाद-विवाद के पश्चात् निर्णय हुभा
जह सव्वसो अभावो रागादीणं हवेज णिद्दोसो । जतणाजुतेसु तेसु अप्पतरे होइ पच्छित्तं ।।
अर्थात् यदि राग आदि का सर्वथा अभाव हो तो इसमें दोष नहीं। यदि यतनापूर्वक व्रत भंग हो तो अल्पतर प्रायश्चित्त से शुद्धि हो सकती है (वही, पृ० १२७)। _असाधारण संकट का समय उपस्थित हो जाने पर संभवतः कुछ की मान्यता थी कि जैसे वणिक् अल्प लाभवाली वस्तु को छोड़कर अधिक लाभवाली वस्तु को खरीदता है, उसी प्रकार अल्प संयम का त्यागकर बहुसर संयम का ग्रहण किया जा सकता है (अप्पं संजमं चएउं बहुतरो संजमो गहेयम्वो, जहा वणियो अप्पं दविणं चइउं बहुतरं लाभं गेहति, एवं तुम पि करेहि-पृ० १५३), क्योंकि यदि जीवन होगा तो प्रायश्चित्त से शुद्धि करके अधिक संयम का पालन किया जा सकेगा (तुमं जीवंतो एयं पच्छित्तेण विसोहेहिसि अण्णं च संजम काहिसि)। लेकिन यह न भूलना चाहिए कि ये सब विधान अपवाद-मार्ग के ही हैं। महाभारत (१२. १४१. ६७ ) में भी कहा है-जीवन धर्म चरिष्यामि।
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