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________________ २०२ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अपहरण करने के लिए तैयार हो जाय तो ऐसी हालत में साधु गच्छ के साथ ही रहे, लेकिन यदि वह उसका जीवन और चारित्र नष्ट करना चाहे तो फिर एकाकी विहार करे ( भाष्य २३-२५ )। किसी नगर आदि में क्षोभ अथवा आकस्मिक कष्ट उपस्थित होने पर एकाकी विहार करे (भाष्य २६-२७)। अनशन के लिए संघाड़े ( संघाटक ) के अभाव में एकाकी गमन करे ( भाष्य २८)। कभी पथभ्रष्ट होने पर साधु को अकेले ही गमन करना पड़ता है ( भाष्य २९)। ग्लान अर्थात् रोगपीड़ित होने पर संघाड़े के अभाव में औषधि आदि लाने के लिए अकेला गमन करे। (भाष्य २९)। किसी और साधु के न होने पर नवदीक्षित साधु को अपने स्वजनों के साथ अकेला ही भेज देना चाहिए (भाष्य ३०)। देवता का उपद्रव होने पर एकाकी विहार का विधान है ( भाष्य ३०)। आचार्य की आज्ञा से एकान्त विहार किया जा सकता है (भाष्य ३१-३२)। ___ आगे विहार की विधि (नियुक्ति ८-१५), मार्ग का पूछना ( १८-२१), मार्ग में पृथ्वीकाय ( २२-२५ ), शीत-उष्ण काल में गमन करते समय रजोहरण से, और वर्षा काल में काष्ठ की पादलेखनिका से भूमि का प्रमार्जन (२६-२७), मार्ग में अप्काय-नदी पार करने की विधि (२८-३८ ) आदि का प्रतिपादन है । वन में आग लगने पर चर्म, कंबल अथवा जूते आदि धारण कर गमन करे (३९)। महावायु के चलने पर कंबल आदि से शरीर को ढककर गमन करे (४०)। आगे वनस्पति द्वार (४१) एवं त्रस द्वार का वर्णन है (४२)। - संयम पालन करने के लिए आत्मरक्षा आवश्यक है। सर्वत्र संयम की रक्षा करनी चाहिए, लेकिन संयम पालन की अपेक्षा अपनी रक्षा अधिक आवश्यक है, क्योंकि जीवित रहने पर, भ्रष्ट होने पर भी, तप आदि द्वारा विशुद्धि की जा सकती है। आखिर परिणामों की शुद्धता ही मोक्ष का कारण है।' संयमके हेतु ही देह धारण की जाती है, देह के अभाव में संयम कहाँ से हो सकता है ? इसलिए संयम की वृद्धि के लिए देह का पालन उचित है (४६-४७)। ईर्यापथ आदि १. सव्वत्थ संजमं संजमाउ अप्पाणमेव रक्खिजा। : मुच्चइ अइवायाओ पुणो विसोही न याविरई ॥ ४६ ॥ २. संयमहेउं देहो धारिजइ सो कओ उ तदभावे ? : संयमफाइनिमित्तं देहपरिपालणा इट्ठा ॥ ४७ ॥ इस विषय को लेकर जैन आचार्यों में काफी विवाद रहा है। निशीथचूर्णि जैसे महत्त्वपूर्ण छेदसूत्र में यही अभिप्राय व्यक्त किया गया है कि जहाँ तक हो सके, विराधना नहीं ही करनी चाहिए, लेकिन यदि काम न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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