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________________ पिंडनियुक्ति का कार्य करके भिक्षा प्राप्त करना-यह धात्री-पिंडदोष है। संगमसूरि छोटे बालक के साथ क्रीडा करके भिक्षा लाते थे, पता लगने पर उन्हें प्रायश्रित करना पड़ा ( ४१०-४२७ )। समाचार ले जाकर प्राप्त की हुई भिक्षा को दूती-पिंडदोष कहते हैं। धनदत्त मुनि इस प्रकार भिक्षा ग्रहण करते थे (४२८४३४)। भविष्य आदि बताकर प्राप्त की हुई भिक्षा को निमित्त-पिंडदोष कहते हैं ( ४३५-६)। जाति, कुल, गण, कर्म और शिल्प की समानता बताकर भिक्षा ग्रहण करना आजीव-पिंडदोष है (४३७-४४२)। वनीपक पाँच होते है:-श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, अतिथि और श्वान । श्रमण आदि का भक्त बनकर भिक्षा लेना वनीपकदोष है (४४३-४४४ )। श्रमण पाँच होते हैं-निग्रन्थ, शाक्य, तापस, परिव्राजक और आजीवक (४४५)। गाय आदि पशुओं को तो सब लोग घास खिलाते हैं लेकिन कुत्ते को कोई नहीं पूछता। यह मानकर कुत्ते के भक्त कुत्तों की प्रशंसा करते हैं। ये कुत्ते गुह्यक बनकर कैलाश पर्वत से इस भूमि पर अवतीर्ण हुए हैं; ये यक्ष रूप धारण कर भ्रमण करते हैं। इसलिए इनकी पूजा करना हितकारक है। जो इनकी पूजा नहीं करते उनका अमंगल होता है (४५१-२)। चिकित्सा द्वारा भिक्षा प्राप्त करने को चिकित्सा-पिंडदोष कहते हैं (४५६-४६०)। क्रोध द्वारा भिक्षा प्राप्त करना क्रोध-पिंडदोष, मान द्वारा भिक्षा प्राप्त करना मान-पिंडदोष, माया द्वारा भिक्षा प्राप्त करना माया-पिंड दोष और लोभ द्वारा भिक्षा प्राप्त करना लोभ-पिंडदोष है । क्रोध आदि द्वारा भिक्षा ग्रहण करने वाले साधुओं के उदाहरण दिये गये हैं ( ४६१-४८३)। भिक्षा के पूर्व दाता की श्लाघा द्वारा भिक्षा प्राप्त करना पूर्वसंस्तव व भिक्षा के पश्चात् दाता की श्लाघा द्वारा भिक्षा प्राप्त करना पश्चात्संस्तव-पिंडदोष कहा जाता है (४८४-४९३)। विद्या के द्वारा भिक्षा प्राप्त करना विद्या-पिंडदोष और मन्त्र के द्वारा भिक्षा प्राप्त करना मन्त्र-पिंडदोष है। यहाँ पर प्रतिष्ठानपुर के राजा मुरुण्ड की शिरोवेदना दूर करनेवाले पादलिप्त सूरि का उदाहरण दिया गया है (४९४-४९९)। चूर्ण-पिंडदोष में दो क्षुल्लकों का और योग-पिंडदोष में समित सूरि का उदाहरण दिया गया है (५००-५०५)। वशीकरण द्वारा भिक्षा प्राप्त करना मूलकर्म-पिंडदोष कहलाता है। इसके लिए जंघापरिजित नामक साधु का उदाहरण दिया गया है (५०६-५१२)। एषणादोषः एषणादोष के दस प्रकार हैं:-शंकित, म्रक्षित, निक्षिप्त, पिहित, संहृत, दायक, उन्मिश्रित, अपरिणत, लिप्त और छर्दित (५२०)। शंकायुक्त चित्त से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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