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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
बुलाने के लिए सींग का बाजा बजाया जाता था ), भेड़ की लेड़ी, गोमूत्र (कोढ आदि दूर करने के लिए), क्षीर, दधि आदि का उपयोग साधु करते थे (४८-५०)। मिश्र पिंड में सौवीर (कांजी), गोरस, आसव (मद्य), वेसन (जीरा, नमक आदि), औषधि, तेल आदि, शाक, फल, पुद्गल (मांस-टीका ), लवण, गुड़ और ओदन का उपयोग होता है (५४)। उद्गमदोष :
एषणा अर्थात् निर्दोष आहार की खोज (७२-८४)। उद्गमदोष सोलह प्रकार का है-आधाकर्म, औद्देशिक, पूतिकर्म, मिश्रजात, स्थापना, प्राभृतिका, प्रादुष्करण, क्रीत, प्रामित्य, परिवर्तित, अभ्याहृत, उद्भिन्न, मालापहृत, आच्छेद्य, अनिसृष्ट व अध्यवपूरक ( ९३ )। आधाकर्म-दानादि के निमित्त तैयार किया हआ भोजन (९४-२१७)। औद्देशिक-साधु के उद्देश्य से बनाया हुआ भोजन ( २१८-२४२)। पूतिकर्म-पवित्र वस्तु में अपवित्र वस्तु को मिलाकर देना ( २४३-२७०)। मिश्रजात-साधु और कुटुम्बीजनों के लिए एकत्र भोजन बनाना ( २७१-२७६)। स्थापना-साधु को भिक्षा में देने के लिए रखी हुई वस्तु ( २७७-२८३ ) । प्राभृतिका-बहुमानपूर्वक साधु को दी जाने वाली वस्तु ( २८४-२९१)। प्रादुष्करण-मणि आदि का प्रकाश कर अथवा भित्ति आदि को हटाकर प्रकाश कर के दी जानेवाली वस्तु (२९२-३०५)। क्रीत-खरीदी हई वस्तु को भिक्षा में देना (३०६-३१५)। प्रामित्य-उधार ली हुई वस्तु को देना ( ३१६-३२२)। परिवर्तित-बदल कर ली हुई वस्तु को भिक्षा में देना (३२३-३२८)। अभ्याहृत-अपने अथवा दूसरे के ग्राम से लाई हुई वस्तु (३२९-३४६)। उद्भिन्न-लेप आदि हटाकर प्राप्त की हुई वस्तु (३४७३५६)। मालापहृत-ऊपर चढ़कर लाई हुई वस्तु ( ३५७-३६५) । आच्छेद्यदसरे से छीन कर दी हुई वस्तु (३६६-३७६)। अनिसृष्ट-जिस वस्तु के बहुत से मालिक हों और उनकी बिना अनुमति के वह ली जाय (३७७-३८७) । अध्यवपूरक साधु के लिए अतिरिक्त रूप से भोजन आदि का प्रबन्ध करना ( ३८८-३९१)। उत्सादनदोष: ___उत्पादनदोष के सोलह भेद हैं-धात्री, दूती, निमित्त, आजीव, वनीपक, चिकित्सा, क्रोध, मान, माया, लोभ, पूर्वसंस्तव-पश्चात्संस्तव, विद्या, मन्त्र, चूर्ण, योग और मूलकर्म (४०८-४०९)। धात्रियाँ पाँच होती हैं-क्षीरधात्री, मज्जनधात्री, मंडनधात्री, क्रीडनधात्री व अंकधात्री । भिक्षा के समय धात्री
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