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चतुर्थ प्रकरण पिंडनियुक्ति
पिंडनिज्जुत्ति-पिंडनियुक्ति' चौथा मूलसूत्र माना जाता है। कभी ओघनियुक्ति को भी इसके स्थान पर स्वीकार किया जाता है। पिंड का अर्थ है भोजन। इस ग्रन्थ में पिंड निरूपण, उद्गमदोष, उत्पादनदोष, एषणादोष और ग्रासएषणादोषों का प्ररूपण किया है। इसमें ६७१ गाथाएँ हैं। नियुक्ति और भाष्य की गाथाएँ एक दूसरे में मिल गई हैं । पिंडनियुक्ति के रचयिता भद्रबाहु हैं। दशवैकालिक सूत्र के पाँचवें अध्ययन का नाम पिंडैषणा है। इस अध्ययन 'पर लिखी गई नियुक्ति के विस्तृत हो जाने के कारण उसे पिंडनियुक्ति के नाम से एक अलग ही ग्रन्थ स्वीकार कर लिया गया । आठ अधिकार
पिंडनियुक्ति के ये आठ अधिकार हैं:-उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजना, प्रमाण, अङ्गार, धूम और कारण (१)। पिंड के नौ भेद इस प्रकार हैं:पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । इनके प्रत्येक के सचित्त, अचित्त और मिश्र भेद हैं (९-४७)। द्वीन्द्रिय जीवों में अक्ष (चन्दनक ), सीपी, शंख आदि, त्रीन्द्रिय जीवों में दीमक का घर ( सर्पदंश को शान्त करने के लिए) आदि, चतुरिन्द्रिय जीवों में मक्खी की विष्ठा ( वमन के लिए) आदि, एवं पंचेन्द्रिय जीवों में चर्म (तुर-उस्तरा आदि रखने के लिए ), हड्डी ( हड्डी टूट जाने पर बाहु आदि में बाँधने के लिए), दन्त, नख, रोम, सींग (मार्गपरिभ्रष्ट साधु को १. (अ) मलयगिरिविहित वृत्तिसहित-देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार,
बम्बई, सन् १९१८. (भा) क्षमारत्नकृत अवचूरि ( तथा वीरगणिकृत शिष्यहिता व माणिक्य
शेखरकृत दीपिका के आद्यन्त भाग) के साथ-देवचन्द लालभाई
जैन पुस्तकोद्धार, सूरत, सन् १९५८. २. मुख्यतः साधुओं के पिंड ( भोजन ) सम्बन्धी वर्गन होने के कारण इसकी
गणना छेदसूत्रों में भी की जाती है।
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