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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भिक्षा ग्रहण करना शंकित दोष है (५२१-५३०)। सचित्त पृथिवी आदि अथवा घृत आदि से लिप्त भिक्षा ग्रहण करना म्रक्षित दोष है ( ५३१-५३९)। सचित्त के ऊपर रखी हुई वस्तु ग्रहण करना निक्षिप्त दोष है ( ५४०-५५७ )। सचित्त से ढकी हुई वस्तु ग्रहण करना पिहित दोष है । (५५८-५६२)। अन्यत्र रखी हुई वस्तु को ग्रहण करना संहृत दोष है (५६३-५७१)। बाल, वृद्ध, मत्त, उन्मत्त, कांपते हुए शरीर वाला, ज्वर से पीडित, अंधा, कोढ़ी, खड़ाऊ पहने हुए, हाथों में बेड़ी पहने हुए, पाँवों में बेड़ी पहने हुए, हाथ-पाँव रहित और नपुंसक तथा गर्भिणी, जिसकी गोद में शिशु हो, भोजन करती हुई, दही बिलोती हुई, चने आदि भूनती हुई, आटा पीसती हुई, चावल कूटती हुई, तिल आदि पीसती हुई, रूई धुनती हुई, कपास ओटती हुई, कातती हुई, पूनी बनाती हुई, छः काय के जीवों को भूमि पर रखती हुई, उन पर गमन करती हुई, उनको स्पर्श करती हुई, जिसके हाथ दही आदि से सने हों-इत्यादि दाताओं से भिक्षा ग्रहण करने को दायक दोष कहते हैं ( ५७२-६०४ )। पुष्प आदि से मिश्रित भिक्षा ग्रहण करने को उन्मिश्रित दोष कहते हैं (६०५-६०८)। अप्रासुक भिक्षा ग्रहण करने को अपरिणत दोष कहते हैं (६०९-६१२)। दही आदि से लिप्त भिक्षा ग्रहण करना लिप्त दोष है (६१३-६२६)। छोड़े हुए आहार का ग्रहण करना छर्दित दोष है (६२७-६२८)। आगे ग्रासैषणा (६२९-६३५), संयोजना अर्थात् स्वाद के लिए प्राप्त वस्तुओं को मिलाना (६३६-६४१), आहारप्रमाण अर्थात् आहार के प्रमाण को ध्यान में रखकर भिक्षा लेना आदि का प्ररूपण है (६४२-६५४)। आग में अच्छी तरह पके हुए आहार में आसक्ति प्रदर्शित करना अंगार दोष है, और अच्छी तरह न पके हुए आहार की निन्दा करना धूम दोष है ( ६५५-६६०)। क्षुधा की शान्ति के लिए, आचार्यों के वैयावृत्य के लिए, ईर्यापथ के संशोधन के लिए, संयम के लिए, प्राण-धारण के लिए और धर्मचिन्तन के लिए भोजन करनायह कारण से आहार ग्रहण होने से धर्माचरण है और रोगादि के कारण आहार न ले तो भी वह धर्माचरण है । यह 'कारण' विषयक द्वार है ( ६६१-६६७)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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