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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भिक्षा के लिए उपस्थित हो तो उसे अतिक्रमण करके प्रवेश न करे; वह ऐसे स्थान पर खड़ा न हो जहाँ वे लोग उसे देख सकें; वह एक ओर जाकर खड़ा हो जाय (१०-११)। दूसरे के घर में भोजन, पान तथा शयन, आसन, वस्त्र आदि बहुत परिमाण में रखे हुए है लेकिन दाता उनका दान नहीं करता, फिर भी भिक्षु को कुपित न होना चाहिए ( २७-२८)। स्त्री, पुरुष, तरुण अथवा कोई वृद्ध यदि वंदन करता हो तो उससे याचना न करे अथवा उसे कठोर वचन न कहे (२९)। कभी विविध प्रकार का भोजन प्राप्त कर भिक्षु सुस्वादु भोजन स्वयं खाकर बचा हुआ विरस भोजन उपाश्रय में लाता है जिससे दूसरे भिक्षु उसे रूक्षभोजी समझ कर उसकी प्रशंसा करें, लेकिन ऐसा करना उचित नहीं है ( ३३-३४ )। यश का लोभी भिक्षु कभी सुरा, मेरक अथवा अन्य मादक रस का साक्षीपूर्वक पान न करे (३६)। जो भिक्षु चोर की भाँति अकेला बैठकर मदिरा का पान करता है वह दोषी है ( ३७) । महाचार-कथा:
प्रारम्भ में छः व्रतों का पालन, छः काय जीवों की रक्षा, गृहस्थ के पात्र का उपयोग न करना, पर्यङ्क पर न बैठना, गृहस्थ के आसन पर न बैठना, स्नान न करना और शरीर की शोभा का त्याग करना आदि विधान हैं (८)। सब जीव जीने की इच्छा करते हैं, कोई मरना नहीं चाहता, इसलिए निर्ग्रन्थ मुनि प्राणवध का त्याग करते हैं (१०)। दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाला मिथ्या भाषण न करे (११)। सचित्त अथवा अचित्त, अल्प अथवा बहुत, यहाँ तक कि दांत खोदने का तिनका तक भी बिना मांगे न ले (१३)। मैथुन अधर्म का मूल है
और महादोषों का स्थान है, इसलिए निर्ग्रन्थ साधु मैथुन के संसर्ग का त्याग करते हैं (१६)। वस्त्र-पात्र आदि रखने को परिग्रह नहीं कहते, ज्ञातपुत्र महावीर ने मूर्छा-आसक्ति को परिग्रह कहा है (२०)। भिक्षु रात्रि भोजन का त्याग करे तथा छः जीवनिकायों की रक्षा करे ( २५-४५)। गृहस्थ के घर बैठने से १. नायाधम्मकहा (५) में शैलक ऋषि का मद्यपान द्वारा रोग शान्त होने
का उल्लेख है। बृहत्कल्प-भाष्य (९५४-५६ ) में ग्लान अवस्था में वैद्य के उपदेश पूर्वक विकट (मद्य) ग्रहण करने का उल्लेख है। यहाँ कहा गया है कि यदि शैक्षक ने किसी के घर विकट पान कर लिया हो तो गीतार्थ लोग विकट-भाजन में इक्षुरस आदि लाकर डाल दें। यदि वह भाजन फूट जाय तो गाय के पदचिह्न बना दें जिससे मालूम हो कि उसे गाय ने फोड़ा है।
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