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________________ दशकालिक करते हुए हड्डी (अस्थि ), काँटा, तृण, काष्ठ, कंकर आदि मुँह में आ जाये तो उन्हें मुँह से न थूक हाथ से लेकर एक ओर रख दे (८४-८५)। जिनभगवान् ने मोक्षसाधन के कारणभूत शरीर के धारण के लिए निर्दोष भिक्षावृत्ति बताई है (९२)। मुधादाता (निःस्वार्थ बुद्धि से दान देने वाला) और मुभाजीवी (निःस्पृह भाव से भिक्षा ग्रहण करने वाला ) ये दोनों दुर्लभ हैं, दोनों ही सुगति को प्राप्त करते हैं (१००)। पिण्डैषणा--दूसरा उद्देश : भिक्षु को चाहिए कि वह समय से भिक्षा के लिए जाये, समय से लौटे और यथासंभव अकाल का त्याग करे। यदि समय का ध्यान न रख भिक्षु असमय में गमन करता है तो वह अपने आपको कष्ट पहुँचाता है और अपने संनिवेश के लिए निन्दा का कारण होता है (४-५)। गोचरी के लिए गये हुए भिक्षु को मार्ग में कहीं बैठना नहीं चाहिए और खड़े-खड़े कथाएँ न कहनी चाहिए (८)। उसे अर्गला, चटखनी, द्वार अथवा किवाड़ आदि का अवलंबन लेकर खड़े न होना चाहिए (९)। यदि कोई श्रमण, ब्राह्मण, कृपण अथवा वनीपक' वहाँ पृ० १८४. बहु अढियेण मंसेण वा बहुकंटएण मच्छेण वा उवनिमंतिज्जाएयप्पगारं निग्धोसं सुच्चा-नो खलु मे कप्पइ 'अभिकंखसि मे दाउं जावइयं तावइयं पुगगलं दलयाहि मा य अट्टियाई-अर्थात् पुद्गल (मांस) ही दो, अस्थि नहीं। फिर भी यदि कोई अस्थियाँ भी पात्र में डाल दे तो मांस-मरस्य का भक्षण कर अस्थियों को एकान्त में रख दे। टीका-एवं मांससूत्रमपि नेयं । अस्य चोपादानं क्वचिल्लूताद्युपशमनार्थ सद्वैद्योपदेशतो बाह्यपरिभोगेन स्वेदादिना ज्ञानाद्युपकारकत्वात्फलवदृष्टं--आचारांग (२), १. १०. २८१, पृ० ३२३. अववादुस्सग्गियं (अपवाद-औत्सर्गिकं)"बहअट्रियं पोग्गलं अणिमिसं वा बहुकंटयं" एवं अववादतो गिण्हतो भणाइ-"मंसं दल, मा अट्टियं"-आवश्यक-चूर्णि, २, पृ० २०२. वनीपक पाँच होते हैं-श्रमण, ब्राह्मण, कृपण, अतिथि और श्वान (स्थानांग, पृ० ३२३ अ)। श्रमणों के पाँच भेद हैं-निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरिक (गेरुआ वस्त्र धारण करने वाले) और आजीवक (गोशाल के शिष्य )। आवश्यकचूर्णि ( २, पृ० २०) में कहा है कि भाजीवक, तापस, परिवाजक, तश्चनिय (बौद्ध भिक्षु) और बोटिय (दिगम्बर सम्प्रदाय के भिक्षु) की वन्दना न करे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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