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________________ जैन साहित्य का वृहद् इतिहास पिण्डैवणा--पहला उद्देश : ग्राम अथवा नगर में भिक्षाटन के लिए गये हुए भिक्षु को धीरे-धीरे और शान्त चित्त से भ्रमण करना चाहिए (२)। उसे भूमि को चार हाथ प्रमाण देखकर चलना चाहिए तथा बीज, हरित, दो इन्द्रियादिक जीव, अप्काय और पृथ्वीकाय जीवों को बचाना चाहिये (३)। अंगार, क्षारराशि, तुषराशि और गोमयराशि को धूलि भरे पैरों से अतिक्रमण न करे (७)। जब वर्षा होती हो, कुहरा गिरता हो अथवा महावायु बहती हो, उस समय कीट-पतंग आदि से व्याप्त भूमि पर भिक्षु को गमन न करना चाहिए (८)। वेश्या के मोहल्लों में न जाये (९)। कुत्ता, हाल की ब्याई हुई गाय, मदमत्त बैल, हाथी, घोड़ा, बालकों के क्रोडास्थान, कलह और युद्ध का दूर से ही त्याग करे (१२)। जल्दी-जल्दी, बातचीत करते हुए अथवा हँसते हुए भिक्षा के लिए गमन न करे; सदा ऊँच नीच कुलों में गोचरी के लिए जाय (१४)। निषिद्ध और अप्रीतिकारी कुलों में भिक्षा के लिए न जाये (१७)। भेड़, बालक, कुत्ते और बछड़े को अतिक्रमण कर घर में प्रवेश न करे (२२)। कुल की भूमि का उल्लंघन करके न जाये (२४)। यदि कोई स्त्री दो इन्द्रिय आदि जीव अथवा बीज और हरितकाय का पैरों आदि से मर्दन करती हुई भिक्षा दे तो उसे ग्रहण न करे (२९)। यदि भोजन करते हुए दो व्यक्तियों में से एक व्यक्ति भोजन के लिए आमंत्रित करे तो उसके द्वारा दिए हुए आहार को ग्रहण न करे, बल्कि उसके अभिप्राय को समझने की चेष्टा करे ( ३७)। गर्भिणी अथवा स्तनपान करते हुए बालक को एक ओर हटाकर आहार देनेवाली स्त्री के द्वारा दिया हुआ भोजन ग्रहण न करे (४०-४२)। जलकुंभ, चौकी और शिला आदि से ढके हुए वर्तन को खोलकर अथवा मिट्टी आदि के लेप को हटाकर दिया हुआ आहार ग्रहण न करे ( ४५-४६)। यदि पता लग जाय कि अशन, पान आदि श्रमणों को देने के लिए पहले से रखा हुआ है तो उसे ग्रहण न करे (४७-५४ )। पुष्प, बीज, हरित, उदक और अग्नि से मिश्रित भोजन को ग्रहण न करने का विधान है (५७-६१)। मंच आदि पर चढ़ कर लाया हुआ भोजन ग्रहण न करने का विधान है (६७)। बहुत हड्डी ( अस्थि ) वाला मांस ( पुद्गल ) और बहुत काँटों वाली मछली' ( अणिमिस ) ग्रहण न करे (७२-७३ ) । यदि भोजन १. अयं किल कालाद्यरेक्षया ग्रहणे प्रतिवेधः; अन्ये स्वभिदधति-वनस्पत्यधिका रात्तथाविधफलाभिधाने-हारिभद्रीय-टीका, पृ० ३५६; मंसं वा णे कप्पइ साहूणं, कंचि कालं देसं पडुच्च इमं सुत्तमागतं-दशवैकालिक-चूर्णि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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