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दशवैकालिक पैदा होने वाले), संस्वेदज (स्वेद से उत्पन्न होने वाले ), संमूर्छन, उद्भिज और उपपातज ( देव और नारकी) जीवों की गणना होती है (१)। छः जीवनिकायों को कृत, कारित, अनुमोदन और मन, वचन, काय से हानि पहुँचाने का निषेध किया गया है (२)। सर्व प्राणातिपात-विरमण, मृषावाद-विरमण,
अदत्तादान-विरमण, मैथुन विरमण और परिग्रह-विरमण-ये पाँच महाव्रत है ( ३-७)। छठा रात्रिभोजन-विरमण व्रत कहा जाता है (८)। भिक्षु-भिक्षुणी को चाहिए कि वह दिन में या रात्रि में, अकेला अथवा समूह में, सुम अथवा जाग्रत् दशा में पृथ्वी, भित्ति, शिला, लोठ, धूलि लगे हुए शरीर अथवा वस्त्र को हस्त, पाद, काष्ठ, अंगुली, अथवा लोहे की सली आदि से न झाड़े, न पोंछे, न इधरउधर हिलाये, न उसका छेदन करे और न भेदन करे। उदक, ओस, हिम, महिका (धूमिका ), करक ( ओला), आर्द्र शरीर अथवा आर्द्र वस्त्र को न स्पर्श करे, न सुखाये, न निचोड़े, न झटके और न आग के सामने रखे (११) । अग्नि, अंगार, चिनगारी, ज्वाला, जलते हुए काष्ठ और उल्का को न जलाये, न बुझाये, न लकड़ी आदि से हिलाये डुलाये, न जल से सींचे, और न छिन्न-भिन्न करे (१२)। पंखे, पत्ते, शाखा, मयूर-पंख, वस्त्र, हाथ और मुँह से हवा न करे (१३)। बीज, अंकुर, हरित, सचित्त आदि के ऊपर पाँव रख कर न जाये. न इन पर बैठे और न सोये ( १४)। यदि हाथ, पैर, सिर, वस्त्र, पात्र, रजोहरण, दंड, पीठ ( चौकी), फलक (पाटा), शय्या और संथारा आदि में कीट, पतंग, कुंथू और चीटी दिखाई दें तो बड़े प्रयत्न से उन्हें बार-बार देखभाल करके एकान्त में छोड़ दे (१५) । अयत्नपूर्वक बैठने, उठने, सोने, खाने, पीने
और बोलने वाला भिक्षु पाप-कर्मों का बंध करता है जिसका फल कडुआ होता है, इसलिए भिक्षु को यतनापूर्वक आचरण करना चाहिये (१०८)। सबसे पहले ज्ञान है, फिर दया-इस प्रकार संयमी ज्ञानपूर्वक आचरण करता है । अज्ञानी भला क्या कर सकता है ? वह पुण्य-पाप को कैसे समझेगा (१०) ? जो जीव, अजीव, जीवाजीव को जानता है वह संयम को जानता है (१३)। जीवाजीव को समझकर संयमी जीवों की गति को समझता है, पुण्य, पाप, बन्ध और मोक्ष को समझता है और पुण्य-पाप आदि के समझने पर विषयभोगों से निवृत्त होता है। फिर बाह्य-आभ्यंतर संयोग को छोड़ मुंड होकर प्रव्रज्या ग्रहण करता है, उत्कृष्ट चारित्र को प्राप्त करता है, कमरज का प्रक्षालन करता है, ज्ञान-दर्शन को प्राप्त करता है, लोकालोक को जानकर केवली पद को पाता है, शैलेशी अवस्था को प्राप्त करता है और अन्त में कर्मों का क्षय कर लोक के अग्रभाग में पहुँच सिद्ध हो जाता है (१४-२५)।
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