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'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास वस्त्र, गन्ध, अलंकार, स्त्री और शयन-इनका जो स्वेच्छा से भोग नहीं करता वह त्यागी है (२)। समभावना से संयम का पालन करते हुए भी कदाचित् मन इधर-उधर भटक जाय, उस समय यही विचार करे कि न वह मेरी है और न मैं उसका हूँ (४)। अगंधन सर्प अग्नि में जलकर अपने प्राण त्याग देगा लेकिन वमन किये हुए विष का कभी पान नहीं करेगा' (६)। क्षुल्लिकाचार-कथा:
निग्रन्थ महर्षियों के लिए निम्नलिखित वस्तुएँ अनाचरणीय बताई गई हैं:औद्देशिक भोजन, खरीदा हुआ भोजन, आमंत्रण स्वीकार कर ग्रहण किया हुआ भोजन, कहीं से लाया हुआ भोजन, रात्रिभोजन, स्नान, गन्ध, माला, व्यजन (पंखा) से हवा करना, संग्रह करना, गृहस्थ के पात्र का उपयोग करना, राजपिंड का ग्रहण करना, संबाधन ( शरीर आदि का दबवाना ), दन्तधावन, गृहस्थ से कुशल प्रश्न पूछना, दर्पण में मुख देखना, अष्टापद (चौपड़), नाली (एक प्रकार का जूआ), छत्रधारण, चिकित्सा कराना, उपानह ( जूते ) धारण करना, आग जलाना, वसति देने वाले का आहार ग्रहण करना, आसन पर बैठना, पर्यक पर लेटना, दो घरों के बीच में रहना, शरीर पर उबटन आदि लगाना, गृहस्थ का वैयावृत्य करना, गृहस्थ को अपने जाति, कुल आदि की समानता बताकर भिक्षा ग्रहण करना, अप्रासुक जल का सेवन करना, क्षुधा आदि से आतुर होने पर पूर्वभुक्त भोगों का स्मरण करना, सचित्त मूली, शृंगबेर (अदरक) और गन्ने का सेवन करना, सचित्त कन्द, मूल, फल और बीज का सेवन करना, सचित्त सौवर्चल ( एक प्रकार का नमक), सैन्धव, लवण (सांभर ), रूमा लवण, समुद्र का नमक, पांशुक्षार (ऊसर नमक ) और काले नमक का सेवन करना, वस्त्र आदि को धूप देना, वमन, वस्तिकर्म, विरेचन, अंजन लगाना, दातौन करना, शरीर में तेल आदि लगाना और शरीर को विभूषित करना (२-९)। जो ग्रीष्म ऋतु में आतापना लेते हैं, शीत ऋतु में प्रावरण रहित होकर तप करते हैं
और वर्षा ऋतु में एक स्थान पर रहते हैं वे यत्नशील भिक्षु कहे जाते हैं (२२)। षड्जीवनिकाय :
पृथ्वीकाय, अकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकायये छः जीवनिकाय हैं । त्रस जीवों में अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज ( रस से
१. ७-१० गाथाओं की उत्तराध्ययन के २२ वें अध्ययन की ४२-४६
गाथाओं से तुलना कीजिए।
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