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________________ दशवैकालिक अर्थात् संध्या के समय पढ़े जाने के कारण इसका दसकालिय नाम पड़ा । इसके अन्त में दो चूलिकाएँ हैं जो शय्यंभव की लिखी हुई नहीं मानी जाती। भद्रबाहु के अनुसार (नियुक्ति १६-१७) दशवकालिक का चौथा अध्ययन आत्मप्रवाद पूर्व में से, पाँचवाँ अध्ययन कर्मप्रवाद पूर्व में से, सातवाँ अध्ययन सत्यप्रवाद पूर्व में से और बाकी के अध्ययन नौवें प्रत्याख्यान पूर्व की तीसरी वस्तु में से लिए गये हैं। दशवैकालिक के कतिपय अध्ययन और गाथाओं की उत्तराध्ययन और आचारांग सूत्र के अध्ययन और गाथाओं के साथ तुलना की जा सकती है। द्रुमपुष्पित : ___धर्म उत्कृष्ट मंगल है; वह अहिंसा, संयम और तपरूप है। जिसका मन धर्म में संलग्न है उसे देव भी नमस्कार करते हैं (१)। जैसे भ्रमर पुष्पों को बिना पीड़ा पहुँचाये उनमें से रस का पान कर अपने आपको तृप्त करता है, वैसे ही भिक्षु आहार आदि की गवेषणा में रत रहता है ( २-३)। श्रामण्यपूर्विक : जो कामभोगों का निवारण नहीं करता वह संकल्प-विकल्प के अधीन होकर पद-पद पर स्खलित होता हुआ श्रामण्य को कैसे प्राप्त कर सकता है (१)? १. मणगं पडुश्च सेज्जभवेण निज्जूहिया दसऽज्झयणा । वेयालियाइ उविया तम्हा दसकालियं णाम ॥ -नियुक्ति, १५. 'वेयालियाइ ठविय' त्ति विगतः कालो विकालः, विकलनं वा विकाल इति, विकालोऽसकलः खण्डश्चेत्यनान्तरम् , तस्मिन् विकाले-अपराण्हे । --हरिभद्र, दशवैकालिक-वृत्ति, पृ० २४. २. तुलना यथापि भमरो पुप्फ वण्णगंधं अहेठयं । पलेति रसमादाय एवं गामे मुनी चरे ॥ -धम्मपद, पुप्फवग्ग, ६. ३. तुलना कतिहं चरेय्य सामनं चित्तं चे न निवारेय्य । पदे पदे बिसीदेय्य संकप्पानं वसानुगो । -संयुत्तनिकाय, १.२.७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002095
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1966
Total Pages462
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size15 MB
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