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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
आठ वर्ष का हो जाने पर मणग ने अपनी माँ से पिताजी के बारे में पूछा । मणग को जब पता लगा कि वे साधु हो गये हैं तो वह उनकी खोज में निकल पड़ा । मगग चम्पा में पहुँच कर उनसे मिला । शय्यंभव को अपने दिव्य ज्ञान से मालूम हुआ कि उनका पुत्र केवल छः महीने जीवित रहने वाला है । यह जानकर उन्होंने दस अध्यायों में इस सूत्र की रचना की तथा विकाल
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जीतमल जैन, देहली, वि० सं० २००७; वेवरचन्द्र बांठिया, सेठिया जैन पारमार्थिक संस्था, बीकानेर, वि० सं० २००२; साधुमार्गी जैन संस्कृतिरक्षक संघ, सैलाना, वि० सं० २०२० मुनि अमरचन्द्र पंजाबी, विलायतीराम अग्रवाल, माच्छीवाड़ा,
वि० सं० २०००.
(ऐ) संस्कृत व्याख्या व उसके हिन्दी - गुजराती अनुवाद के साथमुनि घासीलाल, जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट,
सन्
१९५७-१९६०.
(ओ) सुमतिसाधुविरचित वृत्तिसहित - देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, सूरत, सन् १९५४.
( ) हिन्दी अनुवाद – मुनि सौभाग्यचन्द्र ( सन्तबाल ), श्वे० स्था० जैन कोन्फरेंस, बम्बई, सन् १९३६.
(अं) हिन्दी अर्थ व टिप्पणियों के साथ - आचार्य तुलसी, जैन ३० तेरापन्थी महासभा, कलकत्ता, वि० सं० २०२०.
( अ ) गुजराती छायानुवाद -गोपालदास जीवाभाई पटेल, जैन साहित्य प्रकाशन समिति, अहमदाबाद, सन् १९३९.
( क ) जिनदासकृत चूर्णि - रतलाम, सन् १९३३.
२. महावीर के प्रथम गणधर ( गच्छधर - पट्टधर ) सुधर्मा थे, उनके बाद जम्बू हुए । जम्बू अन्तिम केवली थे, उनके बाद केवलज्ञान का द्वार बन्द हो गया । जम्बूस्वामी के बाद प्रभव नामक तीसरे गणधर हुए, उनके बाद शय्यंभव हुए, फिर यशोभद्र, संभूतिविजय, भद्रबाहु और उनके बाद स्थूलभद्र हुए। शय्यंभव की दीक्षा के लिए देखिए — हरिभद्रकृत
दशवैकालिक वृत्ति, पृ० २०- १.
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