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साधु के ब्रह्मचर्य की रक्षा नहीं रह सकती और स्त्रियों के संसर्ग से ब्रह्मचर्य में शङ्का होती है', इसलिए कुशील को बढ़ाने वाले इस स्थान का दूर से ही परिहार करे (५९) । यावजीवन शीत अथवा उष्ण जल से स्नान न करे ( ६२ ) । वाक्यशुद्धि :
जो भाषा सत्य है किन्तु सदोष होने के कारण अवक्तव्य है, और जो भाषा सत्य- मृषा है अथवा मृषा है, तथा जो बुद्धों द्वारा अनाचरणीय है, वैसी भाषा प्रज्ञावान् साधु न बोले ( २ ) । उसे हमेशा निर्दोष, अकर्कश, असंदिग्ध, असत्यमृषा वाणी बोलनी चाहिए (३) । अतीत, वर्तमान अथवा भविष्यकाल सम्बन्धी जिस बात को न जाने उसे निश्चयात्मक रूप से न बोले ( ८ ) । कठोर और अनेक प्राणियों का संहार करने वाली सत्य वाणी भी न बोले, क्योंकि इससे पाप का बन्ध होता है ( ११ ) । काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर कहकर न बुलाये ( १२ ) । मनुष्य, पशु, पक्षी अथवा सर्प आदि को देखकर यह स्थूल है, चर्बी वाला है, वध करने योग्य है अथवा पकाने योग्य है— इस प्रकार की भाषा न बोले ( २२ ) । यह गाय दुहने योग्य है, बछड़े नाथ लगाने योग्य हैं अथवा रथ में जोतने योग्य हैं - इस प्रकार की भाषा न बोले ( २४ ) । इसी प्रकार उद्यान, पर्वत और वन आदि में जाकर वहाँ विशाल वृक्षों को देखकर यह न कहे कि ये वृक्ष महलों के खम्भे, तोरण, गृह, चटखनी, अर्गल और नाव आदि बनाने के योग्य हैं ( २६-२७ ) । फल पककर तैयार हो गये हैं, पकाकर खाने योग्य हैं, बहुत पक गये हैं, अभी तक इनमें गुठली नहीं पड़ी, अथवा ये दो फाँक करने योग्य हैं, इत्यादि भाषा न बोले ( ३२ ) । यह संखडि' करने योग्य है, यह चोर मारने योग्य है अथवा ये नदियाँ
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१. स्त्रियाँ किस प्रकार साधुओं को वश में करती थीं, यह जानने के लिए देखिए — सूत्रकृताङ्ग का स्त्रीपरिज्ञा अध्ययन |
२. संखंड्यन्ते त्रोद्व्यन्ते जीवानां वनस्पतिप्रभृतीनामायूंषि प्राचुर्येन यत्र प्रकरणविशेषे सा खलु संखडिरित्युच्यते ( बृहत्कल्पभाष्य ३, ८८१ )। संखडि के अनेक प्रकार बताये गये हैं: - यावन्तिका, प्रगणिता, क्षेत्राभ्यन्तरवर्तनी, अक्षेत्रस्थिता, बहिर्वर्तिनी, आकीर्णा, अविशुद्धपंथगमना, सप्रत्यपाया और अनाचीर्णा । गिरनार, अर्बुद ( आबू ) और प्रभास आदि तीर्थों पर संखडि का उत्सव मनाया जाता था जिसमें शाक्य, परिव्राजक आदि अनेक साधु आते थे । इसमें लोग दूर-दूर से आकर सम्मिलित
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