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उत्तराध्ययन
सम्यक्त्व - पराक्रम :
इस अध्ययन में संवेग, निर्वेद, धर्मश्रद्धा, गुरुसाधर्मिकसुश्रूषणा, आलोचना, निन्दा, गर्हा, सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान, स्तवस्तुतिमङ्गल, कालप्रतिलेखना, प्रायश्चित्तकरण, क्षमापना, स्वाध्याय, वाचना, प्रतिपृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा, धर्मकथा, शास्त्राराधना आदि ७३ स्थानों का प्रतिपादन किया गया है ( १-७४)।
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तपोमार्गगति :
प्राणवध, मृषावाद, अदत्त, मैथुन, परिग्रह और रात्रिभोजन से विरक्त होने के कारण जीव आस्रवरहित होता है ( २ ) । पाँच समिति व तीन गुप्तिसहित, चार कषायों से रहित, जितेन्द्रिय, निरभिमानी और शल्यरहित होने पर जीव आव रहित होता है ( ३ ) | आगे तप के भेद बताये हैं ( ७-८ ) ।
चरणविधि :
दो पाप, तीन दण्ड, चार विकथाएँ, पाँच महाव्रत, छः लेश्याएँ, सात पिंडग्रहण- प्रतिमाएँ और भयस्थान, आठ मद, नौ ब्रह्मचर्य, दस भिक्षुधर्म, ग्यारह प्रतिमाएँ, बारह भिक्षुप्रतिमाएँ, तेरह क्रियास्थान, चौदह प्राणीसमूह, पन्द्रह परमा धार्मिक देव, सोलह सूत्रकृतांग के प्रथम स्कन्ध के अध्ययन, सतरह असंयम, अठारह अब्रह्मचर्य, उन्नीस ज्ञाताधर्म के अध्ययन, बीस समाधिस्थान, इक्कीस सचल दोष, बाईस परीषह, तेईस सूत्रकृतांग के कुल अध्ययन, चौबीस देव, पचीस भावनाएँ, दशाश्रुतस्कन्ध बृहत्कल्प तथा व्यवहार सूत्र के सत्र मिलाकर छब्बीस विभाग, सत्ताईस अनगार-गुण, अट्ठाईस आचार-प्रकल्प, उनतीस पापसूत्र, तीस महामोहनीयस्थान, इकतीस सिद्धगुण, बत्तीस योगसंग्रह और तैंतीस आसातनाएँ - इनमें जो सदैव उपयोग रखता है वह भिक्षु संसार में परिभ्रमण नहीं करता ( १ - २१ ) ।
प्रमादस्थान :
सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाश से, अज्ञान और मोह के त्याग से तथा राग और द्वेष के क्षय से एकान्त सुखकारी मोक्ष की प्राप्ति होती है ( २ ) । जैसे बिल्लियों के निवासस्थान के पास चूहों का रहना प्रशस्त नहीं है, वैसे ही स्त्रियों के निवासस्थान के पास ब्रह्मचारी का रहना ठीक नहीं ( १३ ) |
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