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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
कर्मप्रकृति :
कर्म आठ होते हैं:-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय (२-३)। आगे इनके अवान्तर भेद हैं (४-१५)। लेश्या :
लेश्याएँ छः होती हैं:-कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म, और शुक्ल (१३)। आगे लेश्याओं के वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श और परिणाम का वर्णन है (४-२०) । लेश्याओं के लक्षण आदि भी बताये हैं ( २१-६१)। अनगार:
संयमी को हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य, इच्छा तथा लोभ-इनका त्याग करना चाहिए (३)। श्मशान, शून्यागार, वृक्ष के नीचे अथवा दूसरे के लिए बनाए हुए एकान्त स्थान में रहना चाहिए (६)। क्रय-विकय में साधु को किसी तरह का भाग न लेना चाहिए (१४)। जीवाजीवविभक्तिः
अजीव के दो भेद हैं:-रूपी और अरूपी । रूपी के चार और अरूपी के दस भेद हैं। अरूपी के दस भेद ये हैं:-धर्मास्तिकाय के स्कन्ध, देश और प्रदेश, अधर्मास्तिकाय के स्कन्ध, देश और प्रदेश, आकाशास्तिकाय के स्कन्ध, देश और प्रदेश और अद्धासमय (काल) (४-६)। रूपी के चार भेद ये हैं:--स्कन्ध, स्कन्ध के देश, उसके प्रदेश और परमाणु (१०)। इसी प्रकार पुद्गल के अन्य भी भेद-प्रभेद हैं ( १५-४७)। जीव दो प्रकार के होते हैं:-संसारी और सिद्ध (४८)। सिद्धों के अनेक भेद हैं (४९-६७)। संसारी जीव के दो भेद हैं:त्रस और स्थावर (६८)। स्थावर जीवों के तीन भेद हैं:-पृथ्वीकाय, जलकाय, वनस्पतिकाय (६९)। इनके अनेक अवान्तर भेद हैं (७०-१०५ )। त्रस जीवों के तीन भेद हैं:-अग्निकाय, वायुकाय, द्वीन्द्रियादि जीव (१०७)। इनके अनेक उपभेद हैं ( १०८-१५४)। पंचेन्द्रिय जीव चार प्रकार के होते हैं:-नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देव ( १५५)। इनके अनेक उत्तरभेद हैं (१५६-२४७)।
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